SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ भनेकान्त [वर्ष १, किरण २ किसी प्रतापी राजाको अपना पाण्डित्य दिखला देनेसे या उपदेशों से बहुत अधिक शक्ति रखता है। इस तरह वह मुग्ध होजाता था और स्वयं अनुयायी बन कर इन चार बातों पर तथा इसी तरह की और भी कई अपनी प्रजाको भी उसका उपासक बना लेता था। बातों पर विचार करने से मालूम होता है कि ऊपर आजकलका समय दूसरा है। यह तो शान्ततापूर्वक बतलाये हुए तीनों मार्गों से ऐसे विद्वान् बनने की तुमारी बात सुनना चाहता है। यह शास्त्रार्थ या पाशा नहीं जो कि जैनधर्म को राष्ट्र धर्म बनाने में खंडनसे राजी नहीं। इसे केवल प्रतिपादनकी शैली सफलता प्राप्त कर सकें। पसन्द है। जिस गहन और कठिन न्याय की शैलीसे तब इस कार्यके लिए कैसे विद्वान होने चाहिए ? तुम अपने तत्त्वोंका मण्डन और दूसरोंका खंडन करते सबसे पहली और जरूरा बात यह है कि जो धर्महो उसे सर्वसाधारण लोग जानते नहीं और सीधीसादी प्रचारका काम करना चाहें वे जैनधर्मके अच्छे जानयुक्तियोंसे जिन्हें सब कोई समझते हैं तुम समझा नहीं कार हों-जैनधर्मके केवल बाहरी शरीरका ही नहीं, सकते, तब तुझारा न्यायशास्त्री या न्यायाचार्य होना किन्तु उसके मर्मस्थानका-उसके हृदयका-भी उन्हें किस कामका ? माना कि तुमने संस्कृतके साथ कुछ वास्तविक ज्ञान हो । जैनधर्मके चारों अनुयोगों का अंगरजीभी पढ़ली है अथवा अंगरेजीके साथ संस्कृतके उनकी कथनशैलीका, उनके वास्तविक उद्देश्यका, जैनग्रंथ भी तुमने टटोल लिये हैं; परन्तु क्या धर्मप्रसार उनके पारस्परिक सम्बन्धका, और उनके तारतम्यका का काम इतना सहज है कि तुम दूसरे धर्मोको अच्छी उन्होंने किसी अनुभवी विद्वान के द्वारा अच्छी तरहसे तरहसे जाने बिना उन पर विजय प्राप्त कर सको ? रहस्य समझा हो-केवल पुस्तकें पाठ करके या टीकायदि ऐसा होता तो महात्मा अकलङ्कदेव जैसे विद्वान ओंके भरोसे पंडिताई प्राप्त न की हो । दूसरी बात बौद्धोंके विद्यालयमें जाकर पढ़नेका कष्ट क्यों उठाते ? यह है कि वे जैनधर्मके सारे संप्रदायों में जिन जिन तुझें तो अपनी विद्याका इतना अभिमान है कि जिन बातोंका भेद है उनका स्वरूप और उनका कारण धर्मोका तुमने कभी नाम भी न सुना होगा उनका भी अच्छी तरहसे समझे हुए हों और अपनी स्वाधीन यदि काम पड़े तो तुम बातकी बातमें खंडन कर डालो। बुद्धिसे यह ममझनेकी शक्ति रखते हों कि देश, काल पर याद रक्खो, इस प्रकारके खंडनसे धर्मप्रसारका और परिस्थितियों का प्रभाव इन भेदों पर कहाँ तक काम नहीं होता और न इसका कोई अच्छा फल ही पड़ा है। तीसरी बात यह है कि अपने धर्मके समान निकलता है। चौथे, जिस चरित्रबलसे या जिस संसारके मुख्य मुख्य विशाल धर्मोंका उन्हें अच्छी आदर्शजीवनसे यह पवित्र कार्य सम्पादित होसकता है तरह से ज्ञान हो और वह निष्पक्ष और उदार बुद्धिसे उनका इन पंडितों व बाबुओंमें प्रायः प्रभाव ही देखा सम्पादन किया गया हो । चौथी बात यह है कि वे जाता है । इतिहास इस विषय का साक्षी है कि आज प्रत्येक धर्म के उत्थान, विकाश, ह्रास और पतनका तक जितने धर्मप्रवर्तक हुए हैं उन्होंने पाण्डित्यकी इतिहास जानते हों तथा यह भी समझते हों कि देश अपेक्षा अपने चरित्रबलसे ही जैनसमाज पर अधिक कालकी परिस्थितियोंका प्रत्येक धर्मपर कितना और कहाँ विजय प्राप्त की है। मनुष्य का चरित्र उसके वचनों तक प्रभाव पड़ सकता है । पाँचवें, आधुनिक विज्ञान
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy