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________________ वीर नि०सं० २४५६] जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा ? १११ मार्ग सबसे अधिक प्रशस्त है और उसके उदार छत्रके इस कार्य के लिए चाहिये वैसे इन तीनों ही मार्गों से नीचे प्राणिमात्रको आश्रय मिल सकता है । जब तक नहीं बन सकते हैं। क्योंकि एक तो किसी भाषाका इसतरह सब ओरोंसे किसी धर्मकी खबियाँ न दिखलाई जान लेना या किसी ग्रंथका पढ़ लेना विद्वान बन जाना जायँगी तब तक कोई भी धर्म चाहेउसे उसके अनुयायी नहीं है। यदि संस्कृतके जान लेनेसे ही कोई पंडित सीधा स्वर्ग या मोक्षमें भेजनेका विमान ही क्यों न कहलाता हो तो जिस जमानेमें संस्कृत बोलचालकी समझते हों और उसके आसपासकी सारी दुनिया भाषा रही होगी उस ज़मानेके पढ़े लिखे और अपढ़ बिलकुल ही पक्षपातरहित क्यों न हो गई हो–यहाँ तक सब ही लोगोंका पंडित मानना पड़ेगा। इसी प्रकारम कि अपने अपने कुल-धर्मोंको छोड़नके लिये तैयार ही यदि अँगरेजीमें बातचीत करने लगना पंडिताई का बैठी हो-दूसरोंको अपना अनुयायी न बना सकेगा। लक्षण मान लिया जाय तो फिर साहब लांगोंके ग्वान___ हम देखते हैं कि वर्तमान जैन समाजमें इतनी सामा और साईस भी विद्वान समझे जायेंगे। परन्तु योग्यता नहीं कि वह अपने धर्मकी विशेषता या उसकी वास्तवमें ऐसा नहीं है । विद्वत्ता किसी भाषाका बोलना सार्वभौमताको उक्त प्रकारसे सिद्ध करके दिखला सके। या समझना आजानेसे नहीं, किन्तु उसके द्वारा उस उसमें अभी ऐसे विद्वान उत्पन्न ही नहीं हुए और भाषाके विद्वानोंके विचारोंको हृदयस्थ कर लेनेसे उसकी सन्तानको जिस ढंगसे या जिस पद्धतिसे शिक्षा आती है। भाषा ज्ञान नहीं किन्तु ज्ञानका एक साधन दी जाती है उसका विचार करनेसे यह प्राशा भी नहीं है। दूसरे, पुस्तकें पढ़ लनस या उन्हें रटकर परीक्षामें है कि जल्दी ऐसे सुयोग्य विद्वान तैयार हो जायेंगे जो पास हो जान ही कोई विद्वान नहीं हाजाना ।क्योंकि जैनधर्मका प्रतिपादन इस ढंगमे करसकें कि उस पर भाषा समान ग्रन्थभी ज्ञानक माधन ही हैं स्वयं ज्ञान दूसरे लोग मोहित हो जावें और उसका आश्रय लेनेक · नहीं; ज्ञान कुछ और ही वस्त है। वह केवल अध्ययन लिए व्याकुल हो उठे। सही नहीं किन्तु मनन, अनुभव और पर्यवेक्षणम प्राप्त ___ पुराने ख़यालकं लोग नो यह समझते हैं कि होता है। यही कारण है जो मंमारकं प्रसिद्ध प्रसिद्ध संस्कृत भाषाके द्वारा जैनधर्मके उच्च श्रेणीक दर्शन, तत्त्ववेत्ता और महात्मा पुस्तकें पढ़कर नहीं किन्तु न्याय, व्याकरणादि ग्रन्थोंमें योग्यता प्राप्त करने वाले पदार्थाके म्वरूपका निरीक्षण, मनन और अनुभव विद्वान ही जैनधर्मके प्रचारका काम सफलतापूर्वक कर करके हुए हैं; और यही कारण है जो संस्कृत और सकेंगे और नये खयालवाले ममझते हैं कि उच्च श्रेणी- अँगरेजीकी सैकड़ों पुस्तकें घांटकर पीजाने पर भी आज की अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ही से इस प्रकारकी मैकड़ों पंडिन और प्रेज्युएट ऐम दिग्वलाई पड़ते हैं, आशा की जा सकती है। रहे इन दोनोंके बीचके मध्यम जिनका बुद्धिमान्य देवकर दया आती है। नीमरे, खयालवाले, सो उनकी यह समझ है कि संस्कृतके अब वह जमाना नहीं रहा जिममें किसी एक धर्म या पंडितोंको अँगरेजी पढ़ा देनस या अँगरेजीके ग्रेज्यएटों- मम्प्रदायक आचार्यको या नेताको शाम्पार्थमें चुप को संस्कृत और जैनग्रंथ पढ़ा देनसे काम चलजायगा; कर देनेसे वह अपने अनुयायियों महित अपने धर्मका परन्त वास्तवमें विचार किया जाय तो जैसे विद्वान छोड़कर विजेताका धर्म स्वीकार कर लेता था या
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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