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________________ ११० अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा? ले-श्रीयुत पं० नाथरामजी प्रेमी । ७ VM PERSIDDEAS न्यान्य धर्मों की उन्नति और कह सकते हैं कि हम जैन धर्मको राष्ट्रधर्म बना डालेंगे? विम्तति होते देखकर कुछ समय इसीतरह और भी इस मार्ग में जो जो रुकावटें हैं समझ सब से जैनसम्प्रदायमें भी इम लीजिए कि वे सब दूर होगई हैं और कार्य भी प्रारंभ SOMKERS विषय का आन्दोलन होने लगा कर दिया गया है, तो क्या हम अपने उक्त अभीष्टको ना है कि जैन धर्म की उन्नति की पालेंगे ? मेरे खयालम यह काम कहने में जितना सहज जाय और उसका विस्तार देश- मालूम होता है और व्याख्यान देते समय अथवा लेख विदेशों में मर्वत्र किया जाय । यद्यपि जैन धर्म के लिखते समय इसके लिए जितनी सुलभतासे युक्तियाँ दुर्भाग्य से अभी उसके बहुत से अनुयायी ऐसे भी हैं मिल सकती हैं उतना सहज और सुलभ नहीं है । जो अपने पवित्र धर्म को अपवित्र मानहाए देशों में अभी तक जनसमाजमें वह योग्यता ही नहीं आई है लेजाना या हीन जातियों में फैलाना अनचित और और न उसके लानका अभी तक कोई उपाय ही किया पातक का काम ममझते हैं, तोभी यदि थोड़ी देरके लिए गया है कि जिससे इस महत्कायके सम्पादन होनेकी कल्पना कर ली जाय कि इस विषय का कोई भी आशा की जासके । विरोधी नहीं रहा और प्रगति के क्रमानुसार थोड़े समय किसीभी धर्मके प्रसारके लिए यह आवश्यक है में ऐसा होगा ही; तो क्या हमें यह आशा कर लेनो कि सर्वसाधारणको उसकी विशेषता बतलाई जायचाहिए कि हमारी उक्त इच्छा सफल हो जायगी? यह समझाया जाय कि उसमें वे कौन कौनसी बातें हैं हमारे धर्म का सर्वत्र प्रचार होने लगेगा ? हम अक्सर जो दूसरे धर्मों में नहीं हैं। इसके सिवाय, उसमें वे शिकायत किया करते हैं कि इस समय ऐसे कामों में कौन कौनसे तत्त्व हैं जो वर्तमान देशकालके अनुसार हमारे रथ-प्रतिष्ठाप्रेमी धनिक धन नहीं देना चाहते हैं मनुष्योंकी सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक उन्नति और धन के बिना ऐसे महत्व के काम हो नहीं सकते करनेमें मब प्रकारसे सहायक हैं तथा आधुनिक वैज्ञाहैं; परन्तु कल्पना कर लीजिए कि हमारे सारे लक्ष्मी- निक सत्योंके सामने भी जो असत्य या भ्रमात्मक सिद्ध पुत्रोंको भी सुबुद्धि प्राप्त होगई है और वे इसके लिए नहीं हो सके हैं यह सिद्ध करके दिखलाया जाय कि अपनी थैलियों के मुँह खोले हुए बैठे हैं, तो क्या आप उममें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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