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________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा ? ११३ की प्रत्येक शाखाका अर्थात् पदार्थविज्ञानशास्त्र, रसा- कर सकते हैं और जब तक जैन समाज ऐसे विद्वान् यनशास्त्र, विद्युच्छास्त्र, भूगर्भशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, उत्पन्न न कर सकेगा तब तक उसके धर्मका प्रसार जन्तुशास्त्र, शारीरिकशास्त्र, मनोविज्ञानशास्त्र, भूगोल, दूसरे लोगों और दूसरे देशोंमें कदापि नहीं हो सकेगा। खगोल आदि शास्त्रोंका उन्हें अच्छा ज्ञान हो और वह स्वामी विवेकानन्द और परमहंस स्वामी गमतीर्थ एम. इतना स्पष्ट हो जिससे वे अपने धर्मके तत्त्वोंको उक्त ए. ने उक्त गणोंके कारण ही अमेरिका और यगंप शास्त्रोंसे अवाधित सिद्ध कर सकें। इन शास्त्रोंमें पार- जैम ज्ञान विज्ञानसम्पन्न देशोंमें वेदान्त धर्मकी विजय दर्शिता प्राप्त किये बिना केवल इस तरह कह देनसे- पताका फहगई थी। जिन लोगोंन उक्त महात्माओंका कि उनमें प्रतिपादन किया हुआ स्वरूप झठा है क्योंकि जीवन चरित्र पढ़ा है और उनके प्रतिभाशाली व्याख्याना उनके रचियता असर्वज्ञया छद्मस्थथे और हमारे ग्रंथों और लेखोंका पाठ किया है वे जान सकते हैं कि उनकी में लिखा हुआ ही सत्य है क्योंकि उनके उपदेशक विद्वत्ता, म्वाधीनचित्तता और सरित्रता किस श्रेणीकी सर्वज्ञ थे-अब काम नहीं चल सक्ता । आज कलका थी। उन्होंने जो कुछ कहा है वह मब यद्यपि पुराना विज्ञान बड़ी निर्दयता से सारे धर्मों की जड़ों को हिला है परन्तु वर्तमान समयक सांचे में ढालकर उन्होंने उस रहा है, इस लिये हमें सावधान होना चाहिये और इस इतना सुन्दर और उपयोगी रूप दे दिया है कि लाखों के पहले कि हमारी सन्तानो पर उसका बग असर अमेरिकन पुरुप और स्त्रियां उम पर न्योछावर होगई पड़ने लगे हम उसी के द्वारा अपनी रक्षाका सामर्थ्य हैं। स्वामी रामतीर्थजी जब अमेरिकामें व्याख्यान देते प्राप्त करलें । इस समय वही धम संसारमें टिक सकेगा थ तब उम सुनकर लोग यह नहीं समझ सकते थे कि जो विज्ञान की विकट मारसे अपनका बचा सकेगा व किम धर्मका प्रतिपादन कर रहे हैं क्योंकि मार देशों और लोगोंको बतला सकेगा कि विज्ञान हमारे धर्म के तत्त्ववेत्ताओं और धर्माचार्योक बचनोंको लेकर के अगाध ज्ञान समुद्रका एक विन्दुमात्र है। छठे, उन ही वे अपना व्याख्यान बनाते थे; परन्तु जब उसकी स्वदेश और विदेश की दो चार मुख्य मुग्न्य भाषाओं ममामि हो जाती थी, तब कहीं लोग समझने थे कि का ज्ञान हो और वह इतना अच्छा हो कि उसके द्वारा यह वेदान्ततिपादक व्याख्यान था । अपने और वे अपने विचारों को लिख कर और बाल कर दूसरों दुसरं धर्मोका अच्छा ज्ञान प्राप्त किये बिना ऐसी शक्ति को अच्छी तरह से समझा सकें-अर्थात उनमें लेखन प्राप्त नहीं हो मकती। अपनी म्वाधीन और ममयाऔर व्याख्यानशक्ति बहुत अच्छी हो । सातवें, उनका नुकून बुद्धिम उक्त महात्माओंन हिन्दू धर्ममें जो कुछ आचरण पवित्र, हृदय निष्कपट और विशाल, विचार संस्कार और मंशोधन किया है वह बहुत अंशोंमें दृढ़ और परिश्रम अश्रान्न तथा अनवरत हो । जीवमात्र मनातनर्मियों और आर्यममाजियोंके विचारोंमें भी के कल्यान की वाञ्छा, मानवजाति को मच्चा मखी नहीं मिलता-कहीं कहीं बिलकुल बिरुद्ध भी है; परन्तु बनाने की उत्कट इच्छा, परोपकार और स्वार्थत्याग उनकी पवित्रता प्रान्मनिष्ठा और देशभक्ति इतनी की वासना, सत्य प्रियता और स्वाधीनता उनकी नम प्रबल थी कि आज सारं हिन्दृ उन्हें वर्तमान युगक नसमें भरी हो, देश काल की स्थितियों से उत्पन्न हुए धर्माचार्य मानकर म्मरण करते हैं। जो नई शिनानियमों और रूढियोंको जो तुच्छ समझते हों और दीना पाये हुए लोग धर्ममे विमुम्ब होने जान थे उन पर इनकी संकलोंसे बंधे हुए लोगोंका जिन्हें जरा भी भय तो इन महात्माओंका इनना प्रभाव पड़ा है कि वे पक्के न हो । इस प्रकारके आदर्श जीवनका बिना सब गगण हिन्दू बन गये हैं। जैनधर्मकी रक्षा और विस्तारके लिए होते हुए भी कोई धर्मप्रचारका कार्य नहीं करसकता। भी ऐसे ही विद्वानोंकी जरूरत है। ____ मेरी समझमें इन ऊपर लिखे गुणोंसे युक्त विद्वान अब प्रश्न यह है कि इस प्रकारके विद्वान कैस ही इस समय जैनधर्मके प्रसारका कार्य मफलतापूर्वक नैयार होमकने हैं ? हमार्ग पुगनी पद्धतिकी पाठशालाएँ
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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