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________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] पाप का बाप ५०९ निये आदर्शस्वरूप था वह आज इस लोभके वशीभूत यहाँ इस कथनसे यह प्रयोजन नहीं है कि सर्वथा होकर दुगचागें और कुकमों की रंगभूमि बना हुआ लोभका त्याग कर धन कमाना ही छोड़ देना चाहिये, है. मार्ग मद्विद्यायें इससे रूठ गई हैं और यह अपनी धन अवश्य कमाना चाहिये, विना धनके गृहस्थीका मारी गणगरिमा तथा प्रभाको खोकर निम्तंज हो काम नहीं चल सकता; परन्तु धन न्याय-पर्वक कमाना बैठा है !! एकमात्र विदेशोंका दलाल और गुलाम बना चाहिये, अन्यायमार्गसे कदापि धन पैदा नहीं करना हुआ है !!! चाहिये । अर्थात ऐसे अनवित लाभका त्याग कर देना __जब तक हमारे भारतबामी इस लोभ कपायका चाहिये जिममे अन्यायमागस धन उपार्जन करनेकी कम करके अपनी अन्यायरूप प्रवृत्तिको नहीं रोकेंग प्रवृत्ति हावे, यही इम सारं कथनका अभिप्राय और और जब तक स्वार्थत्यागी बनना नहीं सीग्वेंगे तब तक मार है। व कदापि अपने देश तथा समाजका सुधार नहीं कर पाशा है हमारं भाई इस लम्ब परम जरूर कुछ मकत हैं और न संसारमें ही कुछ मुख का अनुभव कर प्रबोधको प्राव होंगे और अपनी लाभ कपायक मंद मकत हैं। क्योंकि सुखनाम निगकुलताका है और करनेका प्रयत्न करेंगे। अपने चिनको अन्यायमार्गस निगकुलना आवश्यकताओं को घटा कर-परिग्रह को हटाने के लिये उन्हें नीतिशास्त्री, प्राचारगाग्रंथों और कम करके-संतोषधारण करनेम प्राप्त होती है । परागपापांक चरित्रों का बराबर नियमपूर्वक अवजा संतापी मनष्य हैं वे निगकुन्न होने से सम्बी हैं, लोकन तथा स्वाध्याय करना चाहिये और सदा हम नागावान और अमनोपी मनप्यांको कदापि निगकुलता बातका चिन्नवन बना चाहिये कि लक्ष्मी चंचल है, नहीं हो सकती और इसलिये व मदा दुखी रहते हैं। न मदा किमी पाम रही और न हंगी ; प्राण भी कहा भी है-"मनपान पर मखम किंदारि- क्षणभंगर है, एक न एक दिन इनका सम्बन्ध जरूर दयमतोपः"."अमनोपामहाव्या धः" अर्थात- छूटेगा ; कुटुम्बीजन नथा इए मित्रादिक अपने मतलब मनापमं बढकर और कोई दसरा माव नहीं है। दारिद के माथी है, इनका भी सम्बन्ध मदा बना नहीं रहेगा; किम कहते हैं ? असंतोषको और मबसे बड़ी बीमारी। मिवाय अपने धर्म परलोकमें और कोई भी माथ कौनसी है ? असंतोष । भावार्थ-जो अमनाया हैं का नहीं जाएगा और न कुछ काम बासकंगा; इमलिये अनेक प्रकारकी धन-सम्पदाके विदामान होतं हरा भी इनके कारण अपना धर्म बिगाड़ना बड़ा अनर्थ है, दरिद्री और रोगीके तुल्य दुखी रहते हैं । इमलिये , " कदापि अपने धर्मको छोड़ कर अन्यायमार्ग पर नहीं चनना चाहिये। सम्व चाहने वाले भाइयोंको लोभका त्याग कर मंतोष धारण करना चाहिये। जुगलकिशोर मुग्नार
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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