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________________ ५१० महान् प्रभावक कालकाचार्य के नामसे जैन जनता अ परिचित नहीं है । इस महात्मा के कथानककी कई हस्त लिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । उन सभी प्रतियोंमें से एक भी प्रति में कथाकारका नाम दृष्टिगत नहीं होता । एवं भिन्न भिन्न प्रतियांम भिन्न भिन्न घटनाओ से इस कथानकका इतना अधिक संमिश्रित कर दिया गया है कि वरित कालकाचार्य * लेखक महाशयक इस लिखने का क्या प्राशय हे वह कुछ समझ नही प्रायाः क्योंकि प्रभावकचरित' में कालकाचार्यको कथा वर्णित है और इस चरित्र उसके कर्ताका नामादिक स्पष्ट दिमा हुआ है। सम्पादक अनेकान्त कालकाचार्य [ लेखक - श्री० मुनि विद्याविजयजी ] यह मूल लेख गुजराती भाषामें लिखा गया है. और 'जैन' के गत 'ज्युबिली अंक' में प्रकट हुआ है । इसके लेखक मुनि विद्याविजयजी 'वीरतत्त्वप्रकाशक मंडल' शिवपुरी ( ग्वालियर ) के अधिष्ठाता है और उन्होंने अपने शिष्य भाई भँवरमलजी लोढा से हिन्दी अनुवाद कराकर अब इसे खुद ही 'अनेकान्त' में भेजनकी कृपा की है, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । इस लेख में जो बात उठाई गई है वह निःसन्देह विचारणीय है । नाम-साम्यके कारण भूल में एक व्यक्ति सम्बंध रखने वाली घटनाएँ दूसरे व्यक्तिके साथ जोड़ दी जाती हैं और कुछ समय के बाद वह भूल अथवा ग़लती रूढ होकर उसका प्रवाह बह जाता है, ऐसा साहित्य की जाँच में बहुत कुछ देखने में आया है । इसका एक ताजा उदाहरण दूसरे विद्यानंद संबंधी घटनाएँ हैं जा पुरातन विद्यानन्दके साथ जोड़ दी गई हैं और जिनका दिग्दर्शन ' अनेकान्त' की दूसरी किरण में कराया जा चुका है। वही हाल कालकाचार्य-संबंधी घटनाओं का हुआ जान पड़ता है। गतानुगतिकता और ढिका कुछ ऐसा माहात्म्य है कि साधारण जनता तो क्या कभी अच्छे विद्वान भी उसके चक्कर में फँसे रहते हैं और वे सत्यका ठीक विश्लेषण नहीं कर पाते । यह परिश्रमशील गहरे ऐतिहासिक विद्वानोंका ही काम है जो इस प्रकार की रूढ भलोंका पता लगाकर सत्यका प्रकाश करते हैं। अतः ऐसे विद्वानोंको इस विषय पर जरूर काफी प्रकाश डालना चाहिए। हाँ, जो लोग सभी जैन शास्त्रोंको अक्षरशः भगवान्‌की दिव्य ध्वनिद्वारा अवतरित समझते हैं उनके लिये इस प्रकारकी घटनाएँ बहुत कुछ शिक्षाप्रद हैं। -सम्पादक [वर्ष १, किरण ८, ९, १० कितने और किस म मय में १ एवं किम कालकाचार्य कौनमा कार्य किया ? इसका निर्णय करना बहुत कठिन हो गया कालकाचार्य द्वारा मु ख्य तीन घटनाएँ हुई और ये हैं : | १ 'गर्दभिल्ल' राजाको गद्दीसे उतार कर 'शक' का स्था पित करना । २ संवत्सरी पर्व पंचमीके बदले चतु र्थीको प्रारंभ करना ३ इन्द्र को निगोदका स्वरूप समझाना । अब हम क्रमशः इन तीनों घटनाओं के लिए कालकाचार्यके कथानकों की ओर दृष्टिपात करते हैं । 'थारावास' नगर * एक प्राकृत मूलसे पता
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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