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माल ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] वीर-सेवक-संघके वार्षिक अधिवेशनका विवरण
४११ और नहीं तो उनका मानना ही छोड़ देना चाहिये । प्रति अभी तक अपने कर्तव्यका पालन किया और न अभी देहलीमें जल्दी ही एक बहुत बड़े शास्त्रार्थके होने विद्वान् लोग ही इस ओर कुछ ध्यान दे रहे हैं । कितने की सम्भावना है, उसके लिये हमें अभी से तय्यार ही विद्वान् तो पत्रोंका उत्तर तक भी नहीं देते अथवा होना चाहिये । यदि समय पर ऐसी किसी बात का उसमें बहुत ही लापर्वाही तथा प्रमादसे काम लेते हैं । अच्छा समाधानकारक उत्तर न दिया जा सका तो मानों उन्हें इस विषयमें अपने उत्तरदायित्वका कुछ भी जैनियों की बहुत बड़ी अप्रभावना होगी और उनके वोध नहीं । लोगोंमें सेवा तथा स्वार्थत्यागके भावका धर्मको हानि पहुँचेगी । अतः उससे पहले ही हमें बहुत ही अभाव जान पड़ता है । आश्रम विद्वानों तथा जल्दी समाधानकी पूरी सामग्री मिल जानी चाहिये। दूसरे सजनोंको घर पर भी काम देना चाहता है परंतु यदि आश्रम से ये सब काम नहीं हो सकते तो फिर कोई लेनेको तय्यार नहीं और जो एक दो ने लिया भी हमारी राय में उसको कायम रखने की कोई जरूरत तो करके नहीं दिया । ऐसी हालतमें आश्रम क्या कर नहीं । इतिहास, साहित्य और तत्त्वज्ञान की बारीक सकता है, अकेले अधिष्ठाताके वशका सब काम नहीं बातोंको, जो आजकल 'अनेकान्त' का विषय बनी हुई है । यदि कुछ अच्छे काम करनेवाले स्वार्थत्यागी पुरुष हैं, आमतौर पर कोई नहीं समझता, उनकी तरफ लोगों आश्रमको अपनी सेवाएँ अर्पण करें, दूसरे विद्वान् की कोई रुचि नहीं है। ऐसा हमें अपने उपदेशकीके दौरे लोग महज़ सफ़र खर्च लेकर साल भरमें एक एकदो दो में अनुभव हुआ है।' पं० महावीरप्रसादजीने आपकी महीनके लिये ही सेवाभावसे आश्रममें पधारनेकी कृपा कुछ बातोंका समर्थन किया और कहा कि वास्तवमें किया करें । और धनिकजन धनकी इतनी सहायता दहलीमें जल्दी ही वैसे एक बहुत बड़े शास्त्रार्थकीसम्भा- प्रदान करें जिससे कुछ ऊँची योग्यताके विद्वानोंको वना पाई जाती है और पौराणिक तथा लोकरचना- वेतन पर भी रकवा जा सके और आश्रममें यथेष्ट सम्बंधी शंकाओंके समाधान के विषय में यहाँ तक ज़ोर साधन-सामग्रीका संग्रह किया जा सके, तो सब कुछ दिया कि उन्हें अक्षरशः सत्य सिद्ध किया जाना चाहिय। हो मकना है-सारे कामोंका सम्पादन किया जा
उत्तरमें अधिष्ठाताजी ने बतलाया कि-'आश्रमके सकता है । बिना इसके ग्वाली बातोस या कोरी पाशा उद्देश्यों में इन सब बातोंका समावेश है, उसका पहला ही गवर्नमें कुछ नहीं हो सकता। आश्रमको पहले जन उद्देश्य है-"ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करना जा वीरके और धनकी यथेष्ट सहायता प्राप्त कराइये-उसके लिए उपासक, वीरगुणविशिष्ट और प्रायः लोक सेवार्थदीक्षित काफी फंड एकत्रित कीजिये और फिर देखिये कि हो तथा भगवान महावीरके संदशको घर घरमें पहुँचा वह क्या कुछ काम करता है। यदि समाज इसके मकें ।" इसमें उपदेशकों अथवा सेवकोंकी क्लास और लिये फंडकी कोई योग्य व्यवस्था नहीं कर सकता, विद्वानोंके व्याख्यानद्वारा शिक्षाकी सब बान आ जाती किसी भी सजनका हृदय संस्थाकी उपयोगिताको देख है। और दूसरे उद्देश्यमें, जो बहुत कुर व्यापक है (दखो कर इसे अपनी सेवाएँ अर्पण करने के लिये तय्यार नियमावली) पौराणिक बातोंकी असलियतको प्रकट नहीं होता और न विद्वान् लोग ही इस तरफ कुछ करते हुए उनके विषयकी रालत फहमी को दूर करना योग देना चाहते हैं तो जरूर इस आश्रमको बन्द भी आ जाता है-उसमें जैन धर्मके समीचीन रूपादि कर देना चाहिये अथवा यह खुद ही बन्द हो जायगा। विषयमें सर्वसाधारणकी भल को सुधारनेकी बात स्पष्ट रही इतिहास, साहित्य और तत्त्वज्ञानकी बात, भले कही गई है । परंतु इन सब कामोंके लिये और श्राश्र- ही जैनजनता अभी इनके महत्वको न समझती हो मको उसके उद्देश्यों में सफल बनानेके लिए जन और परन्तु उसे एक दिन समझना और समझाना होगा, धनकी खास जरूरत है और ये दोनों ही चीजें अभी बिना इनके समाजका जीवन रह नहीं सकता और आश्रमके पास नहीं हैं। न तो धनाढयोंने इस संस्थाके यदि रहे भी तो वह कुछ कार्यकारी नहीं हो सकता।