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________________ ४१० अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ समाजकी ओरसे निराशा ही रही और निरुपायता अधि- कर्मचारी वेतन पर नहीं रक्खे जायेंगे-तब तक आश्रम क बढ़ गई तो एक दिन उन्हें भी हार कर बैठ जाना का काम ठीक चलना और उसे अपने उद्देश्यों में सफहोगा । जैनधर्मके गौरवको पुनरूज्जीवित करने एवं लता मिलना कठिन ही नहीं किन्तु असंभव जान पड़ता जैनसमाजके उत्थानके लिये उनका यह अन्तिम उद्योग है। फिलहाल वेतन पर कमसे कम एक ऐसे योग्य है। इस लिये संघको शीघ्र ऐसी योजना करनी चाहिये विद्वान् की तो शीघ्र योजना हो ही जानी चाहिये जो जिससे आश्रमको कुछ अच्छे निःस्वार्थ मेवकोंकी प्राप्ति सेवाभाव की प्रधानता को लिये हुए हो, आश्रम के हो सके । साथ ही, धनकी ऐसी व्यवस्था की जानी आफिसको भले प्रकार सँभाल सके-खुद ही तथा चाहिये, जिसमें कुछ योग्य विद्वानों को वेतन पर रख संकेतानसार अच्छी तरह से पत्रव्यवहार करना जानता कर उनम काम लिया जा सके और जो काम उठाए हो-प्रफ देखने का जो अच्छा अभ्यासी हो, बाक़ागये हैं तथा भविष्यमें विज्ञप्रि नं०१ के अनुसार किये यदा हिसाब लिखना जिसे आता हो, संस्कृत-प्राकृनाजानका हैं उनका निर्वाह हो मकं । इस वक्त तक 'अ- दि ग्रन्थों पर से निर्देशानुसार कुछ अवतरणों को छॉट नकान्त' के ग्राहकोंसे जो रुपया वसल हआ है उसमे सके अथवा ऐतिहासिक खातोंका खतियान कर सके अधिक उस खातमें, बहत कुछ किफायतस काम लेन और जरूरत होने पर कुछ अनवाद कार्य भी कर सके। पर भी,खर्च हो चुका है और अभी सात किरणें ग्राह- ऐसे विद्वानकी नियुक्ति होने पर अधिष्ठाताका आश्रम कोंको अर देनी बाकी हैं, जिनके लिये आश्रमका जो से बाहर जाना भी हो सकेगा, जिससे बहुत कुछ प्ररूपया अवशिष्ट है वह सब खर्च होकर भी पुरा नहीं चारकार्य बन सकेगा, और आश्रम तथा पत्रके काम पट मकेगा। इसके लिये पत्रकी ग्राहकसंख्या बढ़ाने में कोई रुकावट भी पैदा नहीं होगी।' का भी खास उद्योग होना चाहिय; उद्योग तथा प्रचार इस पर व्र० कुँवर दिग्विजयसिंहजीन, आश्रम तथा मे बहुत से ग्राहक बनाये जा सकते है, जिनका अनु- पत्र की संक्षपमं अालोचना करते हुए, एक छोटी सी भव उन्हें 'जैनगजट' के सम्पादनकाल में हो चका है। स्पीच दी, जिमका सार यह है कि- 'आश्रम में एक उस समय बाब सरजभानजीका सहयोग प्राप्त था, जो उपदेशक-क्लाम खोली जानी चाहिये जिसके द्वारा ऐसे पत्रकी ग्राहकसंग्व्या जुटानका खास उद्योग किया करते उपदेशक अथवा संबक तय्यार किये जायें जो जगह थे और उसके फलस्वरूप उस पत्र की प्राहकसंख्या जगह जाकर जैनधर्मका अच्छा प्रचार करसकें। साथ इतनी बढ़ गई थी जितनी उमे कभी भी नसीब नहीं हुई ही, बाहरसे विद्वानोंका बला कर प्रति सप्ताह या प्रति थी और न शायद बादको ही आजतक नसीब हो सकी पक्ष कुछ कुछ दिनके लिये नियत विषयों पर व्याख्यान है । परन्तु 'अनकान' का एस किसी भी सज्जनका कराये जाया करें। इससे आश्रमके प्रति लोगोंकी दिलमहयोग प्राप्त नहीं है और न खद सम्पादक को पत्र चस्पी बढ़ेगी और अनकान्तके लिये कितने ही लेखों तथा आश्रम का काम करते हुए इतना अवकाश ही तथा लेखोंकी सामग्रीकी प्राप्ति भी सुलभ हो जायगी। मिल रहा है कि जो इस विपय में वे कोई व्यवस्थित दूसरे प्रथमानयोग (पौराणिक बातों)तथा करणानयोगउद्योग कर सकें- एक सम्पादकका वास्तवमें यह काम सम्बन्धी शंकाओंका समाधानका काम आश्रमको है भी नहीं; यदि उसका दिमारा ऐसे कामोंमें लगे तो, खास तौरसे अपने हाथमें लेना चाहिये, उनका ठीक निःसन्देह, उसके कर्तव्यपालनके कितने ही जरूरी काम समाधान न होने से हमें जगह जगह शास्त्रार्थों आदि उससे छूट जायँगे । अत: आश्रममें जब तक दो चार में बड़ी दिक्कतें पेश आती हैं, कितनी ही बातोंकी लोग अच्छे विद्वानोंकी योजना नहीं होगी कुछ त्यागी, खिल्ली तथा मखौल उड़ाते हैं जिससे जैनशासन की रिटायर्ड विद्वान् तथा अन्य परोपकारी सजन अपनी अप्रभावना होती है। वे यदि ठीक हैं तो उनका सबकी सेवाएँ इसे अर्पण नहीं करेंगे और अच्छी योग्यता वाले समझमें आने योग्य अच्छा समाधान हो जाना चाहिए
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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