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________________ ६०४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ माम-देश आदिकी रचना, लौकिक कार्यसम्बन्धी तो राज्यसंस्थाके सद्गुणों पर मुग्ध हो कर अपने शास्त्र, लौकिक व्यवहार और दयामयी-अहिंसाधर्मकी नीतिवाक्यामृत' ग्रंथके प्रारम्भमें "अथ धर्मार्थकामस्थापना की। फलाय राज्याय नमः" इस सूत्रद्वारा धर्म, अर्थ और उक्त विवरण से पता चलता है कि धर्म और कामरूपी फलको देने वाले राज्यको नमस्कार तक राजनीतिका प्रादुर्भाव समकालीन है या यह कह कर डाला है। इसीसे गज्यसंस्थाकी महत्ता तथा उस सकते है कि धर्माचरण की रक्षाके लिये ही राज्य- का धर्म के साथ अबाध सम्बन्ध होनेका पूर्ण परिचय संस्था की स्थापना की जाती है । यद्यपि गृहस्थाश्रममें, मिलता है। जिसका राज्यसंस्थाके साथ घनिष्ठ सम्बंध है, धर्मके ____ आजकल बहुतसे धर्मभीरु केवल धर्मका आँचल अतिरिक्त अर्थ और कामका भी सेवन होता है और पकड़ कर राजनैतिक संग्रामसे मुँह छिपाते हैं और गाईस्थ्य जीवन के लिये ये (अर्थ और काम) भी उतने धर्म तथा धर्मात्मा प्रजा पर दिन रात होने वाले प्रत्याही उपयोगी तथा आवश्यक हैं जितना कि धर्म है चारोंको धर्म (१) में पगी हुई दृष्टिसे टुकुर टुकुर देखा तथापि तीनोंमें धर्म पुरुषार्थ ही मुख्य है । यहाँ पर हम करते हैं। उन्हें यह न भलना चाहिये कि राजनैतिक धर्म पुरुणर्थको मुख्य केवल इस लिये हो नहीं बतला प्रचंड प्रान्धीमें धूलिक सदृश धर्म टिक नहीं सकता रहे हैं कि उसका परलोकके साथ सम्बन्ध है। यदि है। जो राजशक्ति धर्मका संरक्षण करती है वही संहार हम नास्तिक विचारोंके आधार पर परलोकको कपोल• भी कर सकती है। राजनैतिक प्रगतिके वातावरण पर कल्पित भी मान लें, नब भी लौकिक व्यवस्था तथा ही धर्मका प्रसार या संहार अवलम्बित है। अतः जो सामाजिक शान्ति के लिये धर्मका अवलम्बन करनाही सचे धर्मात्मा गृहस्थ होते हैं वे सर्वदा अधार्मिक तथा पड़ेगा। उसके बिना अर्थ और कामका साधन अशक्य अत्याचारी राजसंस्थाके विरुद्ध अपना सर्वस्व न्यौछाहै। दृष्टान्सके लिये-चोरी तथा व्यभिचार सेवन अ. वर करनेको तैय्यार रहते हैं और संसारमें अधर्मधर्म है और न्यायपूर्वक धन उपार्जन करना तथा स्वस्त्री मूलक राजनीतिका संहार करके धर्म तथा न्यायमूलक ' में सन्तोष रखना धर्म है । राज्यसंस्था नियम-उपनियम राजशक्तिको स्थापित कर धर्म और राजनीतिके पुरा. पमा कर इस अधर्मका उच्छेद तथा धर्मका संरक्षण तन सम्बन्धका पुनरुद्धार करते हैं। ऐसे ही परोपकारी करती है। यदि इस धर्मतथा अधर्मकी व्यवस्थाको ठुकरा पुत्रोंसे जननी-जन्मभूमिका मुख उज्ज्वल होता है और दिया जाय तो संसारमें अशान्ति तथा अव्यवस्थाका मानवसंसार हर्षसे उन्मत्त हो कर चिल्ला उठता हैबोलबाला होजाय और ऐसी दशामें मनुष्योंके मन्मुख पर्थ और कामकी चिन्ताके स्थान पर "मात्मानं "जननी जन्मभामय स्वगादाप गरायस सततं रोत्"की जटिल समस्या उपस्थित हो जाय । इसी लिये प्राचीन शासकारोंने राजा तथा राज्यक बहुत गुण गान किये हैं । जैन भाचार्य सोमदेवने . यामेल भी समाजशाम्बके इष्टिकोणात्मे लिला गया है। ले. जीवनी"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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