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________________ ६०३ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध हैं-उन्हें कभी धर्माचरण करनेकी सुध ही नहीं होती। विद्रोहकी आग भड़क उठती है और वह चोर तथा यहाँ पर एक प्रश्न हो सकता है कि, जब भोग- व्यभिचारी बन जाता है। किन्तु जहाँ साम्यवाद हैभूमिमें धर्मावरण नहीं है और वहाँ के स्त्री-पुरुष विला- प्रकृतिप्रदत्त भोग-उपभोगको सब स्वेच्छापूर्वक भाग सी होते हैं तब तो वहाँ अवश्य अधर्माचरण होगा। सकते हैं-न कोई स्वामी है और न कोई सेवक, बाह्य किंतु वहाँ ऐसी दशा भी नहीं पाई जाती; क्योंकि सौंदर्य भी एक ही साँचे में ढला हुआ है, वहाँ अशान्ति केवल विलास अधर्मका जन्मदाता नहीं है । जब वि- या अराजकता हो तो कैसे हो? और लोग पापाचरण लासमें विघ्नबाधायें आने लगती हैं या विलासकी में प्रवृत्त हों तो क्यों कर हो ? इच्छित सामग्री नहीं प्राप्त होती और मनुष्य संतोषको जब भोगभूमि कर्मभूमिका रूप धारण कर लेती ठुकरा कर विलासीस लम्पटी बन जाता है-शरीरमें है और प्रजा षटकर्म से-असि, मषि, कृषि, बासामर्थ्य न रहने पर भी कंवल हृदयकी प्यास बुझान णिज्य, विद्या और शिल्पसे-अपनी आजीविका करने के लिये घरका शीतल जल छोड़ कर मृगमरीचिकाकी के सन्मुख हो जाती है तब आदि ब्राह्मा (इस युगके ओर दौड़ता है-तब विलास अन्याय और अत्याचार भ० ऋषभदेव ) के श्रादेशसे इन्द्र प्राम-नगरादिकी का रूप धारण कर लेता है। रचना करता है। सबसे प्रथम अयोध्याकी रचना होती वैसे तो संसारमें बहुतस अपराध हैं किन्तु उनमें है और इन्द्र उसके मध्यमें एक तथा चारों दिशामों में दो मुख्य हैं, चोरी और व्यभिचार । क्योंकि ये चार इस प्रकार पाँच जिनालय र स्थापित करता है। सामाजिक शान्तिक विशेष घातक हैं। और इन दोनों श्रीत्रिलोकसार में कर्मभूमिके प्रारंभका वर्णन करत अपराधोंकी उत्पत्तिका मूल कारण है असंताप और हुए लिखा है :विषमता । जब एक दरिद्र मनुष्य यह देखता है कि पुरगामपट्टणादी लोयियसत्थं च लोयववहारो। उसका पड़ौसी बहुत धनाढच है-रहने के लिये विशाल धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियोमाविषमण।।८०२ भवन है और सोनके लिये दुग्धफेनके सदृश उज्ज्वल अर्थान-श्रादि ब्रह्मा ( श्री ऋषभदेव ) नै नगरशय्या-, भर पेट खाता है और भर मूंठ नाच-रंगमें उड़ाता है-संवाके लिए सैकड़ों दास-दासी हैं और __* तत्रासिकर्म संवायां मषिलिपिविधौ स्मृता। . घमनके लिये फिटन और मोटर-और......वह __ कृषि भूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्रोपजीवने ।।१८।। वाणिज्यं वणिजां कर्म शिल्पं भ्याकरकौशलम् । . देखा...उधर खिड़कीमें कैसी सजीली शरत चाँदनीसी तष चित्रकला पत्रछेयादि बहुधा स्मृतम ।।१८।। उसकी गृहलक्ष्मी है । और एक मैं हूँ...स्वानको दाना -प्रादि पृ. प । नहीं-दिन भर कड़ी धूपमें कठोर परिश्रम करने पर x शुभे दिन सुनक्षत्रे समूहूर्ते शुभादयं । भी जानके लाले पड़े रहते हैं, टूटी फूटी झोपड़ी वर्षा- स्वोवस्थेष गहेपौ रानकूल्यं जगद्गुरोः ।। १४५ ॥ ऋतु में जयपुर के 'सावन भादों' की स्मृति उत्पन्न कराती कृतप्रथममाङ्गल्ये सुरेन्द्रो जिनमन्दिरम् । है और श्रीमती जी-बस कुछ न पूछो ताड़का रा- न्यवेश्यत्पुरस्यास्य मध्ये विश्वप्यनुक्रमान् ॥१५०।। क्षसीकी सहोदगा है।" तवं उसके हृदयमें मामाजिक -प्रावि पु. १
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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