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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] सम्पादकीय सम्पादकीय ____ उसकी एक म्कीम, जो समाजके पत्रों में प्रकाशित हो चुकी है, देहली-जैनमित्रमंडल के गत महावीर-जयंती जैनममाजमें अर्मेसे कोई ठोम काम नहीं हो रहा अवसर पर समाजके कितने ही विवारकोंके सामने है। प्रमाद, उपेक्षा, शक्ति के दुरुपयोग और आपसकी रक्खी गई, जिसको सबने पसन्द किया और इस बात 'त त मैं मैं' के कारण प्राचीन कीर्तियाँ अथवा पुण्य- की जरूरत जाहिर की कि वह जितना भी शीघ्र कार्यमें म्मतियाँ दिन पर दिन नष्ट होती चली जाती हैं और उनके परिणत हो सके उतना ही अच्छा है । चुनाँचे इस साथ ही समाज तथा धर्मका गौरव भी नष्ट होरहा है। स्कीम के अनुसार देहलीमें 'समन्तभद्राश्रम' नामके समाजके पास उसका कोई सुमंकलित इतिहास नहीं, मेवाश्रमको खोलने और उसका संचालन करनेके लिये उसने अपने विशंपत्व तथा अपनी पाजीशनको भुला चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सं०१९८६ ता०२१ अप्रैल सन्१९२९ दिया है और वह अपने कर्तव्यग गिरकर पतनकी और को, महावीरभगवानके जन्म दिवस पर 'वीरसेवकसंघ' चला जा रहा है-संख्या भी उमकी दिन पर दिन नामका एक समाज कायम किया गया, जिसने तीन घटती जाती है। और ये मब बातें उसके तथा देशके महीने के बाद, आपाढी पूर्णिमा के शुभमुहूर्तमे,ता०२१ लिये बड़ी ही हानिकर हैं । कितने ही भाइयोंके हृदयमें जलाई मन १९२५को गैलवागमें-संघके सभापति यह सब देवकर, दुग्व दर्द के माथ मेवाका भाव उत्पन्न ला. मम्वनलालजी ठेकेदारके विशाल भवनमें-इम होता है परंतु ममाजमें कोई व्यवस्थित काय-क्षेत्र मेवाश्रमकी स्थापना की. जिसके उद्देश्य इस प्रकार . अथवा ऐमी योग्य मंस्था न होने से, जो ऐसे भाइयों हैं:से उनके योग्य सेवा कार्य ले सके, उनके विचार याता आश्रमके उद्देश्य "उत्पद्यन्त विलीयन्ते दरिद्राणां मनोरथाः" की नीनिके अनमार हृदयके हृदय में विलीन होजात है कल भी (क) एमे सञ्चं संवक उत्पन्न करना जो वीरके उपासक, कार्य करन नहीं बनता-और या किसी दूमर ही क्षेत्र वीरगुण-विशिष्ट और प्रायः लोक-संवार्थ दीक्षित में कूद पड़न के लिये उन्हें वाध्य करते हैं । और इम हो नथा भगवान महावीरके मंदेशको घर घर में पहुँचा सकें। तरह पर समाज अपनी व्यक्तियों की कितनी ही बहुमूल्य सेवाओं में वंचित रह जाता है। अतः समाज (ब) एमी मेवा बजाना जिससे जैनधर्मका समीचीन तथा धर्मके उत्थान और लोक हितकी साधनाके लिये म्प, उसके आचार-विचागेकी महत्ता, तत्त्वों का यह मुनासिब समझा गया कि देहली जैसे केन्द्र स्थान रहम्य और सिद्धान्तोंकी उपयोगिता सर्वसाधारण में, जो राजधानी होने तथा व्यापारिक विशेषताओं को मालूम पड़े-उनके हृदय पर अंकित होजायके कारण देशके अच्छे अच्छे विद्वानों तथा प्रतिष्ठित और वे जैनधर्मकी मूल बानो,उमकी विशेषताओ पुरुपों की आवागमन भूमि बनी रहती है, एक ऐसे तथा उदार नीति से भले प्रकार परिचित होकर सेवाश्रमकी सुदृढ़ योजना की जाय जिससे समाजमें अपनी भलको सुधार सकें। सुव्यवस्थित रूप से सेवा-कार्य होता रहे । तदनुमार (ग) जैन समाजके प्राचीन गौरव और उसके इतिहास
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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