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मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६]
भगवान महावार और उनका समय
थोड़ेसे विनोद अथवा क्रीड़ाके स्थल रूपमें ही हमने ऊपर होगये हैं, ऐसा ही किया है; और इसीसे कनडी इसे रख छोड़ा है और उसीका यह परिणाम है कि भाषाके एक प्राचीन शिलालेख * में यह उल्लेख जिस 'सर्वोदय' तीर्थपर रात दिन उपासकोंकी भीड़ मिलता है कि स्वामी समन्तभद्र भ० महावीरके तीर्थ
और यात्रियोंका मेला सा लगा रहना चाहिये था वहाँ की हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए'श्राज सन्नाटा सा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या अर्थात, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरों में भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो व्याप्त कर दिया था । आज भी वैसा ही होना चाहिये। जैनी कहे जाते हैं उनमें भी जैनत्वका प्रायः कोई स्पष्ट यही भगवान महावीरकी सच्ची उपासना, सशी भक्ति लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता--कहीं भी दया, दम, और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा। त्याग और समाधिकी तत्परता नजर नहीं आतीलोगोंको महावीरके संदेशकी ही खबर नहीं, और
"महावीर-सन्देश इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुआ है। हमाग इस वक्त यह खास कर्तव्य है कि हम ऐसी हालतमें अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका भगवान महावीरके सन्देशको-उनके शिक्षासमूहउद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटोंको दूर कर को-मालूम करें, उस पर खुद अमल करें और दूसरों दिया जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी से अमल करानेके लिये उसका घर घरमें प्रचार करें। व्यवस्था की जाय, इसका फाटक सबोंके लिये हरवक्त बहुतसे जैनशास्त्रोंका अध्ययन, मनन और मथन करने खुला रहे, सबों के लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग पर मुझे भगवान महावीरका जोसन्देश मालूम हुआ है सुगम किया जाय, इसके तटों तथा घाटोंकी मरम्मत उसे मैंने एक छोटी सी कवितामें निबद्ध कर दिया है । कराई जाय, बन्द रहने तथा अर्से तक यथेष्ट व्यवहारमें यहाँ पर उसका दे दिया जाना भी कुछ अनुचित न न आनके कारण तीर्थजल पर जो कुछ काई जम गई होगा। उससे थोड़े ही-सूत्ररूपमे-महावीर भगवान है अथवा उसमें कहीं कहीं शैवाल उत्पन्न हो गया है की बहुत सी शिक्षाओंका अनुभव हो सकेगा और उसे निकाल कर दूर किया जाय और मर्वसाधारणको उन पर चलकर उन्हें अपने जीवनमें उतारकर-हम इस तीर्थके माहात्म्यका पूरा पूरा परिचय कराया अपना तथा दूसरोंका बहुत कुछ हित साधन कर, जाय । ऐसा होने पर अथवा इस रूपमें इस तीर्थका सकेंगे । वह संदेश इस प्रकार है:उद्धार किया जाने पर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके यही है महावीर-सन्देश । कितने बेशुमार यात्रियोंकी इम पर भीड़ रहती है, कितने
र भाड़ रहता है, कितन विपुलाचल पर दिया गया जो प्रथम धर्मउपदेश ॥१॥ विद्वान इस पर मुग्ध होते हैं, कितने असंख्य प्राणी इसका आश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करकं ।
* यह शिलालेख बेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर १७
है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके महातेके अन्दर सौम्यनायकी-मन्दिरअपने दुःख-संतापोंसे छुटकारा पाते हैं और संसारमें
की छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है मौर शक संवत् १०५६ का कैसी सुख शांतिकी लहर व्याप्त होती है । स्वामी समन्त- लिखा हुआ है। देखो, एपिग्रेफिका कर्णालिकाकी जिल्द पाँचवीं, भद्रने अपने समयमें, जिसे आज बेबे हजार वर्षसे भी अथवा स्वामी समन्तभद्र (इतिहास) पृष्ठ ४६ मा ।