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________________ -nor अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ ब्राह्मणादिक जाति भेदोंको वास्तविक ही नहीं मानता दोष लग गया हो उसकी शुद्धि की और मलेच्छों किन्तु वृत्ति अथवा आचारभेदके आधार पर कल्पित तक की कुलशुद्धि करके उन्हें अपने में मिला लेने एवं परिवर्तन शील जानता है-इनका कोई शाश्वत तथा मुनि-दीक्षा आदिके द्वारा ऊपर उठानेकी स्पष्ट लक्षण भी गो-अश्वादिजातियोंकी तरह मनुष्य शरीर आज्ञाएँ भी इस शासनमें पाई जाती हैं । और इस में नहीं पाया जाता '; इसी तरह जारजका भी कोई लिये यह शासन सचमुच ही 'सर्वोदय तीर्थ' के पदको चिन्ह शरीरमें नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी प्राप्त है- इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ जाति कल्पित की जाय, और न महज़ व्यभिचारजात मौजूद हैं हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक् आश्रय होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता लेकर संसारसमुद्रसे पार उतर सकता है। है-नीचताका कारण इस धर्ममें 'अनार्य आचरण' परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो माना गया है ; वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्य जाति इस धर्मको अभीष्ट है जो मनुष्य जाति नामक आज हमने- जिनके हाथों दैवयोगसे यह तीर्थ पड़ा नाम कर्मके उदयमे होती है, और इस दृष्टिमे मब है इस महान तीर्थको महिमा तथा उपयोगिताको मनुष्य समान हैं- आपममें भाई भाई हैं--और उन्हें भुला दिया है, इस अपना घरेल, क्षुद्र या सर्वोदय तीर्थइस धर्मके द्वारा अपने विकामका पुरा परा अधिकार कासा रूप देकर इमकं चारों तरफ ऊँची ऊँची दीवारं प्राप्त है । इसके मिवाय, किमीके कुलमें कभी कोई खड़ी कर दी हैं और इसके फाटकमें ताला डाल दिया +"चातुर्वर्ण्य यथान्यच्च चाराडालादिविशेषणं । है। हम लोग न नो खुद ही इमसे ठीक लाभ उठाते पर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धि भुवने गत" ॥ -पावरित, रविषेणः । हैं और न दूसरोंको लाभ उठाने देते हैं-महज अपने "माचारमात्रभेदन जातीनां भेदकल्पनं । नजातिवाह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी। . जैसा कि निम्न वाक्यांम प्रकट है:-- गुगः सम्पद्यते जातिगाध्वंसेविपद्यते ।... १ कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदृपणं । --ध-परीनायां, अमितगतिः । मोपि राजादिसम्मत्या शोधयत्स्च यदा कुलम् ।। "वकृत्यादिभदानां देहऽस्मिन्न च दर्शनात् । तदाऽस्यापनयाहन्वं पुत्रपौत्रादिमन्तती । ब्राह्मग्यादिषु शूद्राद्यैर्गभधानप्रवर्तनात् ॥ न निषिद्ध हि दीक्षाहं कुलं चंदस्य पूर्वजाः ॥ नारितजातिकृताभदा मनुष्याणां गवाश्ववत । • म्वदशऽननग्म्लेच्छान प्रजाबाधाविधायिनः । माकृतियाहगालामादन्यथा परिकल्पते ।। कुलशुद्धिप्रदानाद्यैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमः ॥ –महापुराण, गुणभद्रः । -आदिपुराणे, जिनसेनः । चिन्हानि विटजातम्य सन्ति नांगषु कानिचित् । अनार्यमाचरन किविनायते नीचयोचरः ॥ समलच्चभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहगा कथभवति ---रविणः। नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतान मनुष्यजातिरकव जातिकर्मादयोद्भवा । म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमवृत्तिभेदा हि तभेदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते॥ प्रतिपत्तरविरोधात् । अथवा तत्कन्यानां चक्रवादिपरिणीतानां गर्भेषूत्प -प्रादिपुराणे, जिनसेनः । प्रस्य मातपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथा "विप्रक्षत्रियविटशदाः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जातीयकानां दीक्षाईत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥ जैनधर्ष पग: शक्तास्ते सर्व बान्धवोपमाः ॥ ___- -धर्मरसिके, सोमसेनोदधृतः ॥ -लब्धिसारटीका (गाथा १६३ वीं)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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