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________________ " मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय सम्यक्त्व नहीं वहां आत्मोद्धारका नाम नहीं । अथवा ठीक है। महावीर भगवानका शासन अनेकान्तके यों कहिये कि भयमें संकोच होता है और संकोच प्रभावसे सकल दुर्नयों तथा मिथ्यादर्शनीका अन्त विकासको रोकने वाला है । इस लिये आत्मोद्धार (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय तथा मिध्यादर्शन अथवा आत्मविकासके लिये अहिंसाकी बहुत बड़ी ही संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखजरूरत है और वह वीरता का चिन्ह है--कायरताका रूपी आपदाओंके कारण होते हैं। इस लिये जो लोग नहीं । कायरताका आधार प्रायः भय होता है, इम भगवान महावीरकं शामनका-उनकं धर्मका-श्राश्रय लिये कायर मनुष्य अहिंसा धर्मका पात्र नहीं-उसमें लेते हैं--उसे पूर्णतया अपनातेहैं--उनके मिथ्यादर्शअहिंसा ठहर नहीं सकती। वह वीरोंके ही योग्य है नादिक दूर हो कर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और और इसी लिये महावीरकं धर्ममें उसको प्रधान स्थान व इस धर्मके प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर प्राप्त है । जो लोग अहिंमा पर कायरताका कलंक सकते हैं । महावीरकी ओरस इम धर्मका द्वार सब लगाते हैं उन्होंने वास्तवमें अहिंसाके रहस्यको समझा के लिये खुला हुआ है के, नीचसं नीच कहा जान वाला मनुष्य भी इसे धारण करके इसी लोकमें अति ही नहीं । वे अपनी निर्बलता और आत्म-विस्मृतिके उच्च बन सकता है +; इसकी दृष्टि में कोई जाति गहित कारण कपायांसे अभिभत हुए कायरताको वीरता नहीं-तिरस्कार किये जाने योग्य नहीं-एक चांडाल और आत्माके क्रोधादिक रूप पतनको ही उमका को भी व्रतसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा मम्यग्दर्शन उत्थान समझ बैठे हैं ! ऐसे लोगों की स्थिति, निःसन्देह से युक्त होनेपर 'देव' माना गया है x ; यह धर्म इन बड़ी ही करूणाजनक है । अस्तु। जैसा कि जैनग्रन्यों के निम्न वाक्यों में ध्वनित है। स्वामी समन्तभद्रन भगवान महावीर और उनके "दीक्षायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुर्थश्च विधाचित । शासनके सम्बन्धमें और भी कितने ही बहुमूल्य वाक्य मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः" "उच्चावचजनप्रायः ममयोऽय जिनशिनां । कहे हैं जिनमेंमे एक सुन्दर वाक्य मैं यहां पर और उद्धृत कम्मिन्पुरुष तिष्ठदकस्तम्भ इवालयः ॥' कर देना चाहता हूं और वह इस प्रकार है: —यशस्तिलक, सोमदवः । सर्वान्तवत्तद्गणमुख्यकल्यं, "शद्रोऽप्युपस्कराचारपःशुध्यास्तु तादृशः । सर्वान्तशन्यं च मिथाऽनपेतम् । जात्या हीनाऽपि कालादिलब्धौ यात्मास्तिधर्मभाकू" -सागारधर्मामृते, आशाधरः । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, +यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुतः। सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१॥ बालोऽपि त्वात्रित नौति कोनो नीतिपुरुः कुतः ।। -युक्त्यनुशासन । -जिनशतके, समन्तभद्र. । इसमें भगवान महावीरके शासन अथवा उनके x “न जाति हिंता काचिदकागुणाः कल्याणकारण । परमागम लक्षण रूप वाक्यका स्वरूप बतलाते हुए जो व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। -पप्रचरित, रविषेणः । उसे ही संपूर्ण आपदाओंका अंत करने वाला और सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहर्ज। सबोंके अभ्युदयका कारण तथा संपूर्ण अभ्युदयका देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम्" हेतु ऐसा 'सर्वोदय तीर्थ' बतलाया है वह बिलकुल -रत्नाकरराडके, समन्तभदः ।।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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