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________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क० साहित्य और जैनकवि कलंक आदिकी स्तुति है । आश्वासोंके अंतमें यह गद्य मगर मालम नहीं होता है कि, कवि किस राजा के मिलता है: सचिव थे। पूर्व कवियोंकी स्तुति करते समय कवि ने ___ "इदु विदिताईत्पद-विद्याविनयविरहित- 'विजयगण' (१४४८) का नाम भी लिया है । इससे विद्वजनाखर्वगर्वकुरंगसंगनिधेत-शार्दलहिरण्य- विदित होता है कि, यह उक्त 'विजयण्ण' से बादके गर्भकविशिरोमणिविरचित" आदि। कवि हैं। गुरुओंका स्मरण करते समय तीसरं मंगरस के समान (१५०८ ) प्रभेन्दु-श्रतमुनि के बाद विमल२ विश्वकृतिपरीक्षण-यह गद्य ग्रन्थ है। कीर्तिका नाम लिया है। इससे ज्ञात होता है कि मंगइसमें नेमिचंद्र और अग्गलके गन्थोंका परामर्श तथा रसके कालसे ये कुछ पीछे के हैं। इनका समय लगअनवाद है । कविका अभिप्राय है कि, नेमिचंद्रके बाद भग १५२५ होगा। कविका 'रामविजयचरित' सांगत्य केशिराजके 'शब्दमणिदर्पण' के आदि में प्रतिपादिन में है। इसमें सन्धियाँ १५, पद्य २५६३ हैं । गन्थ म दश कवि थे। जैन संप्रदायके अनुकूल रामायण की कथा लिखी है। १६ कमल पंडिन (१८८६) ग्रन्थावतारमें जिनस्तुति, पश्चात कवि, सिद्ध, सरस्वती, इन्होंने रत्नकरण्डकी टीका बनाई है । यह काश्यप इनकी स्तुति है । तदनन्तर पूज्यपाद, अकलंक, समन्तगोत्री बोम्मरसके पुत्र थे। इनका स्थान श्वेतपर था। भद्र, कोण्डकुन्द, चारूकीर्ति पंडित, प्रभन्दुमुनि, श्रुतकविका कथन है कि, मैसुर राजा मुम्मडि कृष्णराजाके मुनि, विमलकीर्ति इन गाओंकी स्तुति की है । इस आश्रितसूरि पंडितके इष्टानसार १८६६ (?) में मैंने इस कवि की रचना लालत और हृदयंगम है । की रचना की है । इस टीकाका नाम 'बालबोधिनी' है। वर्धमान ( ल. १६५०) २० चन्दय्य उपाध्याय इन्होंने 'श्रीपाल चरित' लिग्वा है । इनका समय इनका स्थान मूडबिद्री और गन्थ 'जैनाचार' है। लगभग १६५० है। यह श्रीपाल चरित सांगत्य में है। यह गन्थ सांगत्यमें है। इममें मंधियों२०, और प्रत्येक संधिक अंतमें यह पद्यहैपरिशिष्ट 'मदननिगपमान मलयाद्रिपवमान कविपद्म ( १२०५ ) विदितसज्जनसेव्यमान । इन्होंने बेलर का ३२२ वाँ शासन ( हासन जिले मदुगुणवाभास्यमान ननिसिदनु के शासनों का अनुबन्ध ) लिखा है। यह बात उमी चदर श्रीकविवर्तमान ।।" शामनके अंतिम पद्य से अवगत होती है। इस शासनमें लिखा है कि १२९५ में वर्धमान मलयारि का म्मिलित होने वाले हैं) .... ( उक्त दोनों कवि द्वितीय भागके अनुवाद में सस्वर्गवास हुआ । उसीके उपलक्षमें दोरसमुद्र के भव्यों ने उनका समाधिस्थान बनवाया है। नोट और निवेदन __ (यह कवि प्रथम भाग के अनुवाद में सम्मिलित इस लेखके साथ 'कर्णाटक-कविचरिते' नामक होने वाला है।) कनड़ी गन्थके तीनों भागोंमें आए हुए जैन कवियोंका देवप्प ( ल. १५२५) संक्षिप्त परिचय समाप्त हो जाता है । पहले भागके ७५ इन्होंने 'रामविजयचरिते' लिखा है । कविने अपने कवियोंका परिचय 'जनहितैषी' में प्रकट हुआ था और को 'भसुरवंशोद्भव' बतलाया है। इनके पितामह होय- बादको (सन् १९१४ में ) 'सुलभगन्थमाला' में वह सल देशके चंगनाड के सचिवशिरोमणि देवप्प, पिता एक अलग पुस्तकके रूपमें भी निकाला गया था। बुकरस । इन्होने अपनेको भी सचिव देवप्प लिखा है। यह पुस्तक मोहोल ( शोलापुर ) निवामी सेठ शिव
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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