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________________ [वर्ष १, किरण ८, ९, १० उनके द्वारा साहित्यके उद्धार तथा प्रचारका प्रायः कुछ भी काम नहीं हो रहा है। इस दिशा में जो कुछ भी काम हो रहा है वह प्रायः अजैन विद्वानों और अजैन श्रीमानां के द्वारा ही हो रहा है; और इस लिये वे सब हमारे विशेष धन्यवादके पात्र हैं । उनके अंदर यदि इतनी उदारता और गुणग्राहकता न होती तो नहीं मालुम अब तक और कितना कनड़ी साहित्य लुप्त हो गया होना ! और आज हम इस परिचयको पानेके भी योग्यन होते। ४८८ अनेकान्त लाल जी की आर्थिक सहायता से प्रकाशित की गई थी और इसी लिये ४० पृष्टकी पुस्तक होने पर भी इसका नाम मात्र मूल्य आध आना रक्खा गया था । यह पुस्तक अब वर्षों से नहीं मिलती-कितने ही विद्वानोंको इसके लिये भटकते तथा इधर उधर पत्रव्यवहार करते देखा है, कुछ को मुझे अपनी पुस्तक उधार देनी पड़ी है । अस्तु; इस भागके शेष २१ कवियों का हाल, जो बादको मालूम हुआ है, वह अनेकान्तकी इस संयुक्त किरण में दिया गया। दूसरे भाग ५० जैन कवियों का परिचय पाठक 'अनेकान्त' की दूसरी, तीसरी, छठी-सातवीं किरण में पढ़ चुके हैं और तीसरे भागके २० कवियों का परिचय ता पहले भागके एक और दूसरे भाग के दो और अवशिष्ट रहे हुए कवियों का परिचय भी, शास्त्रीजी के एक सुन्दर वक्तव्य के साथ, उनके सामने प्रस्तुत है । कर्णाटक जैनकवियों के इस संपूर्ण परिचय से - जिसमें अनेक आचार्य, मुनि, विद्वान्, त्यागी, ब्रह्म राजा, मंत्री तथा अन्य गृहस्थ शामिल हैं - यह पर मालूम होता है कि हमारे सजातीय बन्धुओं ने कर्णाटक प्रदेशमें साहित्यसेवा और उसके द्वारा धर्म तथा समाजकी सेवाका कितना बड़ा भारी काम किया है । उनके द्वारा सैंकड़ों पन्थरत्न रचे गये, जिनकी प्रशंसामें कितने ही अनुभवी जैन विद्वान् भी मुक्तकंठ और मुक्त लेखिनी बने हुए हैं। इन गून्थोंमें क्या कुछ है कौन कौनी बातें सुरक्षित हैं, कितना इतिहास संपहीत है अथवा देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार तथा नये नये अनुभवों को लेकर क्या क्या विशेषताएँ पाई जाती हैं, इन सब बातोंसे उत्तर भारत के प्रायः सभी जैनी अनभिज्ञ हैं - उन्हें तो ग्रन्थों तथा ग्रन्थकर्ताओं का नाम तक भी मालूम नहीं हैं और न यही खबर है कि दक्षिण भारतमें हमारा कितना अभ्युद रह चुका है । रहे दक्षिण भारतके जैनी, उनकी प्रथम तो संख्या ही बहुत कम रह गई है, दूसरे उनमें विद्वानों की असाधारण कमी पाई जाती है और तीसरे धनाभाव भी उन्हें बहुत कुछ सता रहा है । इससे वे खुद अपने साहित्य के महत्व से अनभिज्ञ हैं, कितने ही गन्थनको अपने प्रमाद तथा अज्ञानवश खो चुके हैं, 1 इसमें सन्देह नहीं कि कर्णाटक साहित्य में जैनधर्मका बहुत कुछ आत्मा मौजूद है और जैन समाजका भी उसके द्वारा बहुत कुछ समीचीन दर्शन हो सकता है; क्योंकि हमारे बहुतसे प्राचीन आचार्य और विद्वान उधर ही हुए हैं और कितने ही जैन राजादिक भी पिछले ज़माने में उधर रह चुके हैं । इस लिये उत्तरभारत के जैनियों का यह खास कर्तव्य है कि वे अपने दक्षिणी भाइयों की सहायता से महत्व के कनडी ग्रन्थोंका राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अनुवाद कराएँ और कनड़ी जैन साहित्य में जो जो विशेषताएँ हैं उन सब का एक उत्तम संग्रह भी विद्वानों द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कराने की योजना करें । इससे हमें अपने पूर्व पुरुषों के आचार-विचारों तथा इनिहासका बहुत कुछ पता लग सकेगा और हमारे धार्मिक एवं सामाजिक जीवनमें बहुत कुछ प्रगति हो सकेगी। इस के सिवाय, यह भी निवेदन कर देना जरूरी है कि कर्णाटक जैन कवियों का यह सब (तीनों भाग का ) परिचय अब एक अलग पुस्तक के रूप में अच्छी तरतीब देकर और कई उपयोगी अनुमणिकाओं में विभूषित करके निकाला जाय। और वह बिना मूल्य अथवा लागत से भी बहुत कम मूल्यमें वितरण किया जाय । यदि कोई दानी महाशय इस ओर योग देवें तो समन्तभद्राश्रम इस शुभ कार्य को अपने हाथ में ले सकता है। अनुक्रमणिकाओं के साथ यह पुस्तक दस फार्म (१६० पृष्ठ) के लगभग होगी और इसकी लागत २००) रु० के क़रीब आएगी आशा है कोई एक या दो सज्जन शीघ्र ही इस भार को उठानेका श्रेय प्राप्त करेंगे । -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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