SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फाल्गुन, वीरनि० सं०२४५६] 'अनकान्त' परलोकमत २५५ 'अनेकान्त' पर लोकमत ४२-श्रीजनेद्रकुमारजी, देहली__"अनेकान्त' देखा । अखबार आज कल बहुत से निकल रहे हैं। पर गिनतीके ऐसे हैं जो लोकरुचिके प्रवाहमें बहते नहीं, उस प्रवाह के बीच में और विरोध में एक आदर्श (Standard) को प्रतिष्ठित करने के प्रणमें दीक्षित होते हैं। होता है तो उसी यत्न में मिट जाते हैं, पर (Standard) से नहीं डिगते । मैं समझता हूँ, ऐसे ही पत्रों का अस्तित्व सार्थक है, भले ही वे चाहे थोड़ा ही जी- वन रख पायें। यों तो बहुतेरे उगते हैं, और बहुतेरे जीते रहते हैं, बिकते भी रहते हैं और मालिकोंको नका भी देते रहते हैं, पर उनका होनान-होना, मेरी दृष्टि में एकसा है। क्योंकि वे दुनियाँ को जरा लाभ और जरा पुष्टि नहीं पहुँचाने । 'अनेकान्त', मैंने स्पष्ट देखा, एक आदर्श लेकर चला है। इसके लिये संपादक पंडित जुगलकिशोर जी अभिनंदनीय हैं । वह लोकमचि में बहना नहीं चाहता, बहती हुई मचि को मोड़ना चाहता है। पत्र के सभी लेख, स्पष्ट, उसी श्रादर्शमें पिरोये हुए हैं । जिसे भर्ती कह सकते हैं, वैसे लेख इसमें नहीं हैं । लोकरुचि, जो स्वभावतः नीचेकी ओर बहती है, और साधारणतः नीचे की ओर वह रही है, संभवतः इसे न अपनाये । पर वे जो उस से ऊपर उठ गये हैं, और उठना चाहते हैं, बहुत कुछ अपनी सत्प्रवृत्तियाँ और सदिच्छाएँ 'अनेकान्त' की पंक्तियों में प्रतिबिम्बित और प्रतिफलित पायेंगे। और इसे सराहेंगे। उन्हीं की सराहना, मेरी दृष्टिमें कीमती है और मेरा विश्वास है वही भनेकान्तको प्राप्त है। मेरी कामना है 'भनेकान्त' अपने लक्ष्य पर बिना डिगे-चले बढ़ता रहे। भव्य जनों का इससे बड़ा उपकार होगा।" ४३-प्रोफ़सर मोतीलालजी एम. ए., बनारस "जबसे 'जैनहितैषी' की असामयिक मृत्य हुई तब से मैंने यह समझ लिया था कि जैन समाज की रही सही जीवन-शक्ति भी लुप्त हो गई । परन्तु 'अनेकान्त' को पाकर वह भ्रम दूर हो गया, मुरझाई हई आशालता फिर हरी हो गई। एकान्तमें बैठ कर बहुत ध्यान पूर्वक अनंकान्त का मनन किया और अपनी चिरकालिक ज्ञानपिपासा को शान्त किया । सभी लेखों में विचार-गम्भीरता और श्रमपूर्ण गवेषणा व्यक्त होती है। आश्रम और पत्रके उद्देश्य सराहनीय हैं। यह समाज का सौभाग्य है कि आपन ___ एक बार फिर साहित्यिक पुनरुत्थान का मार्ग खोल दिया है। मेरी यह हार्दिक भावना है कि पत्र चिरजीवी हो और अपने उस उद्देश्यों के अन कूल उन्नति करता रहे।" ४४-पा० हुकमचन्दजी नारद, जबलपुर "अनेकान्त” की प्रथम किरण के दर्शन हुए । आपने जिस गम्भीरता एवं विद्वत्ताके साथ पत्र निकालनेका संकल्प किया है। वह सचमुच में अभिनन्दनीय है। आशा करता हूँ कि आपके "अनेकान्त" की प्रचण्ड किरणें इस फैले हुये निविड़ अन्धकार को मिटाने में सफल होंगी। अन्त में भापके साधु संकल्प की हदय से सफलता पाहता हूँ।"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy