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________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज १३५ अकलंकदेवके मौलिक ग्रन्थ कौन कौनसे हैं । 'तत्त्वार्थ- सदशताके कारण एक ग्रंथप्रति के पत्र दूसरी ग्रन्थराजवार्तिक' और 'अष्टशती' नाम के जो प्रन्थ कुछ प्रतिमें लग गये हैं और इस तरह लोगोंकी अथवा भंडारों में पाये जाते हैं वे अकलंकदवकं मौलिक ग्रंथ संरक्षकोंकी अमाववधानी से दोनों ही ग्रंथ अधर हो नहीं है किन्तु दूसरे प्राचार्यों के ग्रन्थों पर लिखे हुए गये !! इस ग्रंथप्रतिके पहले ५०० पत्रीका भाग एक उनके भाष्य हैं। उनके उल्लेग्व-योग्य मौलिक ग्रन्थाम तरफ़म कुछ कुछ गल गया है और उड गया है; बीच 'लघीयस्त्रय' नामका एक ही ग्रंथ -जो प्रमाणप्रवेश वीचमें भी कई पत्र ट गये हैं और कई पत्रांकी तो आदि तीन छोटे छोटे प्रकरणों का लिये हुए माणिक- मत्ता भी नहीं है, जो मंभवतः इमी तरह टट ट्ट कर चद्रप्रन्थमाला की कृपा से किसी भंडारकी काल- नष्ट हो गये हैं। इस प्रकार यह ग्रंथप्रति अधुरी है और कोठरी से निकलकर अभी तक पलिकके सामने भंडारके मंरक्षकोंकी असावधानता और उनकी विल आया है। परन्तु उसके साथ भी स्वोपज्ञ भाष्य लगा क्षण शास्त्रभक्तिको पुकार पुकार कर कह रही है !!! हुआ नहीं है । स्वोपज्ञभाष्यों की-खुद अकलंकद्वारा परन्तु अधरी होने पर भी इससे कई बातोंका पता अपने ग्रन्थों पर लिखी हुई टीका-टिपणियों की- चल गया है और और भी कुछ चल सकता है; किन्तु शायद किसीको कल्पना भी नहीं है। परन्तु स्वोपज्ञ- जिन ग्रंथांकी सत्ता ही नहीं रही उनसे क्या मालुम हो भाष्य अनेक प्रन्थों पर लिखे गए जरूर हैं-भले ही सकता है ? यदि खंडित समझ कर इस प्रन्थप्रतिकी वे आकारमें कितने ही छोटे क्यों न हों । और इसका जलसमाधि लगा दी जाती या इसे अग्नि देवताके सुअनुभव मुझे गत वर्ष गुजरात-पुरातत्त्व-मन्दिर में पुर्द कर दिया जाना तो कितना अलाभ होता ? बहुत अकलंकदेवकं कुछ प्रन्थोंकी टीकाओं के पन्ने पलटने में नाममझ भाई एमा कर देते हैं, यह उनकी बड़ी पर हुआ है। लघीयत्रय पर भी स्वोपज्ञभाष्य लिखा भल है । अतः जिन शास्त्रभंडागेमें ऐसी जीर्ण-शीर्ण गया है, यह बात तो दैवयोग्य से उस जीर्णशीर्ण प्रति वंडित प्राचीन प्रतियाँ हों उनके मंरक्षकोंको परसे ही जानी गई है जिसका पिछले नोटोंमें उल्लेख चाहिये कि वे उन्हें योग्य विद्वानोंको दिखला कर किया गया है। उस प्रतिके शुरुमें दस पत्र ऐसे हैं जो उनका मदुपयोग करें अथवा समन्तभद्राश्रमको भंज न्यायकुमुदचंद्रके कोई अंग नहीं हैं। वे किमी दूमरी देवें । यहाँ उनसे यथेष्ट लाभ उठाया जा सकेगा। अम्नु । सदृश प्रतिके पत्र हैं, जो एक ही लेखकद्वारा एक ही अकलंकदेवके मौलिक प्रन्थों में 'लघीयम्रय' के प्रकार के आकारादि को लिये हुए काराज़ पर लिम्वी अतिरिक्त तीन ग्रन्थ सबसे अधिक महत्वकं हैं-सिगई होंगी। इन दस पत्रों में 'लघीयत्रय' नामका मूल द्धिविनिश्चय, २ न्यायविनिश्चय और ३ प्रमाणसंग्रह। प्रन्थ स्वोपज्ञ वृत्ति को लिये हुए जान पड़ता है। वह शायद इन्हींके संग्रहको 'वृहतत्रय' कहते हों । वृहनत्रय इन पत्रोंमें पूरा नहीं हुआ। कुछ और भी अवशिष्ट की बाबत पं० नाथूरामजी प्रेमीके भट्टाकलंक-विषयक रहा है जो उस दूसरी प्रतिमें होगा। इसीसे न्याय- लेखस मालूम हुआ था कि उसकी एक प्रति कोल्हापुर कुमुदचंद्र के प्रारंभिक दस पत्र इस प्रति में नहीं हैं। में पं० कल्लापा भग्मापा निटवेजीके पास मौजूद है। मालूम होता है प्रन्थों को धूप देने आदिके ममय परन्तु प्रेमीजीके द्वारा लिखा-पढ़ी करने पर भी उन्होंने
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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