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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ उसके अस्तित्वादि-विषयमें कोई सूचना देनेकी कृपा सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिरहंतोऽपंथरनहीं की । समाजके विद्वानोंकी ऐसे विषयोंमें भी यह माणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो उपेक्षा, निःसन्देह, बहुन ही खटकती है और बड़ी ही सद्धोप्रायश्चित्त इत्यर्थः।।* चिन्तनीय है! अतः इन तीनोंमूल ग्रन्थोंमेंसे कौन ग्रन्थ इसमें 'सिद्धविनिश्चय' ग्रंथ कितनं असाधारण कहाँ के भंडारमें मौजूद है, इसका अभी तक कुछ भी महत्व की चीज़ है इस बलानकी जरूरत नहीं रहती। पता नहीं है। हाँ, इतना सुनिश्चित है कि 'सिद्धिविनि- ग्रन्थके इस उल्लेख परमे ही उसकी खोज प्रारंभ हुई । श्चय' और 'प्रमाणमंग्रह' पर अनन्तवीर्याचार्यकी टीका मुनि श्रीकल्याणविजयजीन जैनयुग' में सूचना निकाली तथा भाष्य लिखे गये हैं और न्यायविनिश्चय पर वा- कि, 'सिद्धिविनिश्चय' नामका कोई ग्रन्थ 'सन्मति' दिराजसरिका विवरण है जिस 'न्यायविनिश्चयालंकार' तर्क जैसा महान है उसकी खोज होनी चाहिये । अहभी कहते हैं। न्यायविनिश्चयालंकार पहलेसे दो एक मदाबादसे भाई शंभुलाल जगशी शाहजी किसी कार्यभंडारोंमें मिलता था परन्तु सिद्धविनिश्चय-टीका की वश कच्छदेशक 'कोडाय' ग्राम (ताल्लुका, माँडवी) गये हालमें ही खोज हुई है और इस टीका परसे ही मुझे हुए थे, उन्हें वहाँ श्वेताम्बर-'ज्ञानभण्डार' को देखते 'प्रमाणसंग्रह-भाष्य' का पता चला है-टीकामें अनेक हुए दैवयोगमे 'मिद्धिविनिश्चय-टीका' की उपलब्धि हुई स्थानों पर विशेष कथनके लिये अनन्तवीर्य आचार्यनं और उन्होंने उसके विपयमें पं०सुखलाल तथा पं० बेअपने इस भाष्यको देखने की प्रेरणा की है। यह चरदासजी आदिको सूचना दी। सूचना पाकर उन्होंने महत्वपूर्ण भाष्य कहाँ के भण्डारमें पड़ा हुआ अपने उम प्रन्थकी उपयोगिता जाहिर की और उसे लानकी दिन पर कर रहा है अथवा कर चुका है, इसका अभी प्रेरणा की । वह ग्रंथ अहमदाबाद लाया गया और तक कुछ भी पता नहीं है । मिद्धिविनिश्चय-टीकाकी गजरात-पुरातत्व-मंदिरमें उमकी कापी कराई गई। लोकसंख्या सोलह हजारम ऊपर है, यह एक बड़े इम तरह इस सिद्धिविनिश्चय टीकाकी खोज तथा महत्वकी टीका है और इसकी खोजका इतिहास भी उद्धारका श्रेय मुनि कल्याणविजय, भाई शंभलाल, पं० अच्छा रहस्यपूर्ण है। सुखलाल और पं० बेचरदामजीको प्राप्त है । और इस श्वताम्बरांक जीतकल्परिण' ग्रंथकी श्रीचंद्रसरि- लिये ये सभी मजन विशेष धन्यवादके पात्र हैं।। विचिन 'विषमपदव्याख्या' नामकी टीकामें मिद्धि- परंतु पाठकों को यह जान कर दुःख होगा कि विनिश्चय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख है और उसे दर्शन- इस टीका में मूल लगा हुआ नहीं है-मूलके मिर्फ प्रभावक शास्त्रोंमें सन्मति (नक) के माथ पहला स्थान आयाक्षगेका ही उल्लेख करके टीका लिखी गई है। प्रदान किया है और लिखा है कि, ऐस दर्शनप्रभावक इसमें मूलका उल्लेख दो प्रकारसे पाया जाता है-एक शास्त्रोंका अध्ययन करते हुए साधुको अकल्पित प्रति- 'अत्राह' आदिके साथ कारिका रूप से और दूसरे सेवनाका दोप भी लगे तो उमका कुछ भी प्रायश्चित्त नेताम्बरोंक ‘निशीथ ग्रन्थकी वृर्णिमें भी ऐसा ही उठेख है। नहीं है, वह साधु शुद्ध है । यथाः और यह बात मुनि कल्याणविजयजीके पत्रसे जानी गई, जो उन्होंने "दंसण ति-दसणपभावगाणि सन्थाणि पं. बेवरदासजीको लिखा था ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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