SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्र, वीर नि०स०२४५६ पुरानी बाता की खोज १३७ 'कारिका व्याख्यातुमाह' जैसे वाक्य-प्रयोगोंके साथ है-उम थोथा, नुमाइशी और नि मार प्रकट कर रही कारिकाकी व्याख्यारूपसे। व्याख्याके भी आद्याक्षरही है। जो समाज 'मिद्धि विनिश्चय' जैसे अपने अमादिये हैं-पूरी व्याख्या नहीं दी और कहीं कहीं उन्हें धारण दर्शनप्रभावक ग्रन्थों की भी यों भलादे-उन देकर 'मगमेतत् ऐसा लिख दिया है और उसकी टीका का म्मरण तक भी उसे न रहं-उसका मंमारमं यदि नहीं की। इससे यह टीका मूल 'सिद्धिविनिश्चय' और प्रभाव उठ जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? एमे उसके 'म्वोपज्ञ भाष्य' को लेकर लिखी गई है, ऐसा बहुमूल्य रत्नाकी अवहेलना करनम ही आज यह जानि जान पड़ता है । और चूंकि 'लघीयस्त्रय' पर भीस्वापक्ष श्रीहीन बनी हुई है । जैनियोंके लिये, निःसन्देह, यह एक भाष्यका पता चलता है, इससे यह अनुमान होता है. बड़ी ही लज्जा तथा शरम की बात है जो वे ऐसे महान क 'न्यायविनिश्चय' आदि दसरं कठिन प्रन्थों पर भी ग्रंथोंकी खोज तथा उद्धार-सम्बंधी जरूरी कर्तव्यों के म्वोपज्ञ भाप्य लिग्वे गये होगे। न्यायविनिश्चयालंकार मामने मौजद होने हुए भी, उन में भाग न लेकर, दीके साथमें भी न्यायविनिश्चय पूरा लगा हुआ नहीं है, नागें पर मोना लीपन है अथवा माने चांदीक रथ-घोड़े उसकी कोई काई कारिका ही परी दी है , बाकी सब आदि निकालकर अपनी शान दिखलानेमें ही लगे हुए कारिकाओंके श्राद्यानर ही दिये हैं। और यह बात मरे है; और जो लमप्राय जैनग्न्याकी म्बोजकी बात मामने नोट से रह गई कि उसमें किसी कारिका की व्याम्या आत ही कानी पर हाथ रम्बत हैं तथा इधर उधर बगले भी दी हुई है या कि नहीं। झाकत है, और इस तरह कर्तव्यनिष्ट विद्वत्ममाजकं ___ मिद्धिविनिश्चयकी टीका परम में न यह जानने मामन अपने को हॅमी का पात्र बना रहे है। की भी कोशिश की, कि उसके सहारेसे मृलग्रंथ भिन्न हर्पका विषय है कि मिद्धिविनिश्चयके माथ माथ अथवा स्पष्ट किया जा मकता है या कि नहीं, और जिम दृमा ग्रंथक माहात्म्यका उन्लग्व श्वेताम्बर-मत्रो मालूम हुआ कि नहीं किया जा सकता। सिर्फ किसी में पाया जाना है उम 'मन्मनितर्क' का उद्धार, उमकी किसी कारिका को ही हम उस परम पूरा अथवा स्पष्ट ५ हजार मंधन टीका-महिन, श्वेताम्बर भाइयों ने कर सकते हैं, और ऐसी कारिकाओं की संख्या बहुन कर टाला है, जिसका विशेष परिचय उसके प्राप्त होने ही अल्प है । मंगलाचरणकी कारिका को मैंने परिश्रम पर पाटकों को दिया जायगा। सुना है एक ही मंट करके स्पष्ट किया है और उम पं० वरदास जी ने ने .. या ३० हजार रुपये उमके उद्धार के लिये पुरातत्व-मंदिर की प्रति पर मुझमे लिग्वा भी लियाहै, गजगन-पगनव-मंदिर का दिय थे । दम वप में पं० वह इस प्रकार है: मग्यलान तथा पं. बंचग्दाम जी जैम योग्य विद्वानां सर्वज्ञं सर्वतत्त्वार्थ-स्याद्वादन्याय-देशिनं । सम्पादकन्त्र में उसके उद्धार का कार्य चल श्रीवर्द्धमानमम्यर्च्य वच्य सिद्धिविनिश्चयम्॥ रहा था जो अब ममानि के करीब है- भमिका इस तरह अकलंकदेवके ये तीनों ही महत्वपूर्ण लिखी जा रही है । क्या दिगम्बर्ग में कोई भी गन्थ अप्राप्य हो रहे हैं और उनकी यह अप्राप्ति नि- ऐसा माईका लाल नहीं है जो 'मिद्धिविनिश्चय' का यों की अकलंक-भक्ति पर कलंक का टीका लगा रही उसकी टीका-महित उद्धार करनेका बीड़ा उठा मक?
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy