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________________ त्र, धीरनिःसं०२४५६] बढी चंदेरी और हमारा कर्तव्य ३१५ के गिरनेसे गिर गये होंगे, और उनके अलग अलग तरह कितने ही ढेर बन गये जो दूर तक चले गये हैं। देर लगा दिये गये होंगे इसलिये इन ढेरों पर चढ़कर इन मंदिरोंसे आगे बढ़ कर नीचे की ओर एक दावे कि यहाँ जिन मंदिरों और जिनप्रतिमाओंके कोई सुन्दर पहाड़ी पर नदी बह रही है और अपरकी भोर चिन्ह मिलते हैं या कि नहीं। परंतु अनजानमें हम तीनों तरफ पहाड़ी दृश्य है । यह स्थान बहुत रम्य लोगोंसे एक बड़ा पाप बन गया । वास्तवमें वे पत्थर तथा सुरक्षित है। हम लोग वहाँ दो तीन घंटे फिर कर निरे पत्थर ही नहीं थे किन्तु उनकी दूसरी ओर जिनः देखते रहे, वहीं नदी के किनारे सबने भोजन-पान किया प्रतिमाएँ भी उकेरी हुई थीं, जो कि बिलकुल देवगढ़ और फिर संध्या हो जाने तथा जंगलके कारण यहाँसे के ही महश उसी प्रकारके शिल्पको लिये हुए अत्यन्त वापिस चंदेरी आगये। मनोज्ञ थीं। बहुत सी प्रतिमाएँ तो उनमें प्रायः सांगो- यदि कोई पुरातत्त्ववेत्ता सजन इस स्थान पर पांग पूजने योग्य थीं; मात्र किसी का नख किसीका पधारें और खोजका कार्य करें तो उनकी यहाँ से नामाप्रभाग तथा किसी की अँगलीका पोरा भन्न था बहुत कुछ ऐतिहासिक मामग्री मिल सकती है। और कोई कोई बिलकुल अखंडित भी थीं। इनके खेद है समाज का इस ओर कुछ भी ध्यान नही है। मिवाय कोई मस्तकविहीन, कोई पदविहीन और कोई समाजका कर्तव्य है कि वह शीघ्र ही इस क्षेत्र की करविहीन भी थीं; जिन सबके श्राकार और कारी- म्योज कगए और ग्वालियर सरकारमे अधिकार प्रान गरी को देख कर हृदय गद्गद हो जाता था। जान कर के उमका प्रबन्ध करे। वहाँ हजारों की संख्याम पडना था कि देवगढ़ और यहाँका निर्माता कोई एक. मनोज्ञ प्रतिमाएँ है जो दर्शनीय तथा पजनीय भी हैं। ही महापुरुष होगा। यहाँ ऐसे अनेको ढेर दूर दूर तक पड़ने पर यह भी मालम हुआ कि वहाँ भामपासके पड़े हैं । कितने ही ढेरोंमें में मूर्ति-पापाणीको उठा उठा जंगलीम और भी बहुत मी प्रतिमाग इधर उधर पड़ी कर देखा गया और फिर यह समझ कर उन्हें ज्यादा लथा मिट्टी श्रादिक नीचे दी हुई है, जिन सबके न्या रग्ब दिया गया कि कहीं कोई आततायी उन्हें कुछ खोज य.रने की और उन्हें व्यवस्थित रूपस रखने और न बिगाड़ देवे । कई छोटे छोटे मंदिर अभी तक की बड़ी आवश्यकता है। बड़े भी हैं जिनमें तीन तरफ वैम ही पत्थर लग है एमी तरह छत्तीसगढ़ डियाजन तथा कटकमा प्रो. जो कि कहरकी ओर तो सपाट और भीतर की तरफ भी जंगलों में बहुन जैन प्रतिमाएं पाई जाती है जा जिनपर मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं, सामने जिनके चौखट अत्यन्त प्राचीन है। गयपर व उसके पास पारनमें, नथा ऊपर पत्थरोंका शिखराकार पटाप है और जो पलकतराके पास रतनगदम, सहयोलमें, विलासपरमे, पत्थरोंकी संधियों को बिना चनेके ही परस्पर मिलाकर डोंगरगढ़ में, वामाराके एक कुएँ में और और भी अनेक खड़े किये गये हैं। मालूम होता था कि इसी प्रकारके स्थानों पर पहाड़ियों में, जंगलों में, गुफामोंमें दिगम्बर मंदिरोंके गिरनेसे मूर्ति वाला भाग नीचे दब गया और जैन पूतिमाएँ मौजूद है, जो सबजैनियों के प्राचीन गौरव सपाट पृष्ठ भाग ऊपर रह गया तथा शिखरके पत्थर भी तथा उनके अभ्यदयको सिद्ध करने वाली है और म. ऊपर गिर गये, जिससे पत्थरों जैसे ढेर हो गये और इस गर्म में भी जैनियों के इतिहासकी वसी सामी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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