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________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] भगवती श्राराधना और उसकी टीकाएँ खेद है कि इस प्राचीन प्रन्थके पठन-पाठनकी इस गाथा में दस प्रकारके श्रमणकल्पका नामोऔर विद्वानोंका ध्यान नहीं है और तुलनात्मक दृष्टिसे ल्लेख है। बिलकुल यही गाथा श्वेताम्बर कल्पसत्र में अध्ययन करना तो लोग जानते ही नहीं हैं। प्राचार्य वट्ट मिलती है और शायद आचारांग सूत्र में भी है। इस केरका 'मूलाचार' और यह 'भगवती आराधना' दोनों बातका उल्लेख करते हुए पण्डित जी लिखते हैं कि :प्रन्थ उस समयके हैं जब मुनिसंघ और उसकी परम्परा " मूलाचारमें श्रीभद्रबाहुकृत निर्यक्तिगत गाथाओंका अविच्छिन्न रूपसे चली आ रही थी और जैनधर्मकी पाया जाना बहुत अर्थमचक है। इसमें श्वेताम्बर दिगदिगम्बर और श्वेताम्बर नामकी मुख्य शाखायें एक म्बर सम्प्रदायकी मौलिक एकताके समयका कुछ प्रतिदूसरेसे इतनी अधिक जुदा और कटुभावापन्न नहीं हो भाम होता है।" गई थीं जितनी कि आगे चल कर होगई । इन दोनों ही इस प्रन्थ में कुछ विषय ऐसे हैं, जो श्वेताम्बरग्रन्थों में ऐसी सैंकड़ों गाथायें हैं, जो श्वेताम्बरसम्प्र- परम्पराके तो अनुकूल हैं ; परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय दायक भी प्राचीन प्रन्थों में मिलती हैं और जो दोनों वालों को खटकते हैं । उदाहरणके लिए आगे लिखी सम्प्रदायोंके जुदा होनेके इतिहासकी खोज करने वालों हुई गाथायें देखिए जिन में लिखा है कि क्षपकके लिए को बहुत सहायता दे सकती हैं। पं० सुखलालजी ने चार मुनि भोजन लावें'पंच प्रतिक्रमण' नामक ग्रन्थकी विस्तृत भूमिका चत्तारिजना भत्तं उवकप्पति भगिलाणए पाउग्गं । में एक गाथासूची देकर बतलाया है कि भद्रबाहु स्वामी छंदियमवगददोसं अमाइणो लदिसंपएणा॥६६५।। की 'श्रावश्यक-नियुक्ति' और वट्टकेर स्वामीके 'मूला- चत्तारिजणापाणयमुक्कापति भगिलाणए पागं । चार'की पचासों गाथायें बिल्कुल एक हैं। अभी बम्बई बंदियमवगददोसं अमाइणोलद्धिसंपएणा॥६६६॥ में जब मैंने भगवती आराधनाकी कुछ गाथायें पढ़ कर अर्थान-लब्धियक्त और मायाचार रहित चार मुनि सुनाई, तब उन्होंने कहा कि उनमेंसे भी अनेक गा- ग्लानिरहित होकरक्षपकके योग्य उद्गमादि-दोषरहित थायें श्वेताम्बर प्रन्थों में मिलती हैं। उदाहरणकं लिए भोजन और पानक ( पेय) लावें । मंस्कृत टीकाकारने ४२७ नम्बरकी नीचे लिखी गाथा देखिएः- इन गाथाओंके 'उबकपंनि' 'उपकल्पयन्ति'-शब्द भाचेलक्कुसियसेज्जाहररायपिंडपरियम्मे। का अर्थ 'श्रानन्ति ' किया है और प्रकरण को देखने वदजेपडिक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो ॥ हुए यही अर्थ ठीक है ; परन्तु भाषावचनिकाकार पं० ___ यह अतिशय महत्त्वपूर्ण विस्तृत भूमिका संयुक्त ग्रन्थ 'प्रा- सदासुख जी इस अर्थसे घबराते हैं। वे कहते हैं कित्मानन्द-जैन पुस्तक-प्रचारक-मडल' रोशन मुहल्ला प्रागरा ने प्रकाशित "अर इस ग्रन्थकी टीका करने वाला उपकल्पयन्ति किया है और प्रत्येक जैनीके अध्ययन करने योग्य है । सामायिक का पानयन्ति ऐसा अर्थ लिखा है, सो प्रमाण रूप प्रतिक्रमण आदि भावश्यक क्रियानों पर प्रकाश डालने वाला इसमे जाहीर कछ विशेष लिखा नाहीं।अर कोऊ या कहे अच्छा ग्रन्थ शायद ही कोई मिल सके। * 'विजयोदया' टीका की देहली प्रति में इस गाथा का नम्बर जो आहार ल्यावते होयगे, तो या रचना आगम सं ११८ दिया है और इसी तरह अन्यत्र उक्त गाथाभों के नम्बरों में मिले नाहीं । अयाचिक वृत्तिके धारक मुनीश्वर भोजन -सम्पादक कैसे याचना करें?"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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