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________________ १५० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ __ प्राचार्य वट्टकरके 'मूलाचार' में भी एक इसी विजहना नामा अधिकार ) और भी विलक्षण तथा प्रकार का उल्लेख है, जिस पर कविवर वृन्दावनजी अश्रुतपूर्वहै, जिसमें कि आराधक मुनिके मृतकसंस्कार को शंका हुई थी और उन्होंने जयपुरके सुप्रसिद्ध का वर्णन है। इसमें बतलाया है कि क्षपककी मृत्यु दीवान अमरचन्दजीसे इस विषयमें पत्र लिख कर होने पर उसके शरीरको निषधिकासे निकाले और यदि पूछा था तथा उन्होंने उसका समाधान किया था। अवेला हो-रात्रि इत्यादि हो-तो जागरण, बन्धन मूलाचारकी उस गाथाको भी मैं यहाँ उद्धृत कर और छेदन की विधि करे । अर्थात् कुछ धीर वीर मुनि देता हूँ: क्षपकके मृत शरीरके निकट रात्रि भर जागरण करें सेजोगासणिसेज्जातहोउवहिपडिलिहणहिउवगाहों। और उस शरीरके हाथके और पैरके अंगठेको बाँध दें माहारोसयभोयण विकिचणं बंदणादीणं ॥ ३६१ तथा छेद दें। क्योंकि यदि ऐसा न किया जायगा तो ___इसके विवादास्पद अंशकी संस्कृतटीका इस कोई व्यन्तर आकर शरीरमें प्रवेश कर जायगा,उपद्रव प्रकार है : करेगा और संघ को वाधक होगा। टीका-माहारेणा भिक्षाचारेण औषधेन क्षपकके शरीरको प्रास्थान-रक्षक अथवा गृहस्थशुण्ठीपिप्पल्यादिकेन वाचनेन शास्त्रव्याख्याने- जन पालकी में स्थापन करके और बाँध करके ले न बिकिंचनेन च्युतमलमूत्रादिनिहरणेन वन्द- जाये फिर अच्छा स्थान देख कर उसे डाभ (कुशतृण) नया च पूर्वोक्तानां मुनीनामुपकारः कर्त्तव्यः। से अथवा उसके प्रभावमें ईटोंके चूर्ण या वृक्षोंकी ___ भगवती आराधनामें एक प्रकरण (चालीसवाँ केसरसे समतल करके उस पर स्थापित करें। जिस x वेखो मेरे द्वारा सम्पादित और जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय दिशामें प्राम हो उसकी ओर मस्तक करें और समीप द्वारा प्रकाशित 'कृन्दावनक्लिास' पृष्ठ १३५ । कविवर कृन्दावन जी में उपधि अर्थात् पिच्छि कमंडलु आदि रख देवें । शिखरिणी छन्दमें पूछते हैं: पिच्छि कमंडलु आदि रखनेसे यह लाभ है कि यदि सुनी भैया, वैयावरवृत करैया मुनिवर, उस क्षपक का जीव सम्यग्दर्शनकी विराधनासे व्यन्तर करें कोई कोई रुगि तहिं रसोई निज कर। असुर आदि होकर उस स्थानमें आयगा तो अपने तहाँ शंका तंका उठत अति वंका विवरणी, शरीरको उन उपकरणोंसहित देख कर फिर धर्म में दृढ निरंभी प्रारंभी अजगुत कथा भीम करणी॥ होजायगा ! इसके बाद समस्त संघ आराधनाके लिए इसके उत्तर में दीवान अमरचन्दजी ने उक्त ३६१ नम्बर की " कायोत्सर्ग करे, वहाँके अधिपतिदेवको इच्छाकार करे गाथा और सस्कृत टीका उद्धत करके लिखा था कि "इसमें यह लिखा है कि क्यापत्ति करने वाला मुनि साहार से मुनि का उपकार और उस दिन उपवास करे, तथा स्वाध्याय नहीं करे। करे, परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार स्वयं हाथ से बना कर क्षपकके शरीर को वहाँ छोड़ कर सब चले आवें देवे । मुनि की ऐसी चर्या पाचारांग में नहीं बतलाई है।" इसके और फिर तीसरे दिन कोई निमित्तज्ञानी जाकर देखे। अनुसार दीवानजीको मुनिका केवल रवय रसोई बनाना मयुक्त मालूम , वह शरीर जितने दिन अखंडित पड़ा रहेगा, बनके होता है । भोजन लाकर देना नहीं । परन्तु पं० सदासुखनी चकि ज्यादा कड़े तेरापंथी थे, इस कारण उन पाझर लाकर देना भी जीवों द्वारा भक्षण नहीं किया जायगा, उतने ही वर्ष ठीक नहीं जंचता था । उस राज्यमें सुभिक्ष और क्षेम कल्याण रहेगा। इसके
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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