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________________ ५८. अनेकान्त . [वर्ष १, किरण ११, १२ परस सिद्ध है । गंधहस्तीके विचारप्रमंगमें दी हुई गये आगमके समर्थनको देख कर उनके किसी शिष्य यक्तियोंसे यह भी जाना जाता है कि गंधहस्ती प्रस्तुत या भक्त अनुगामीने उनके जीवनमें अथवा उनके पीछे सिद्धसेन ही हैं । अर्थात जब तक दूसरा कोई स्वास उनके लिय 'गंधहस्ती' विशेषण प्रयुक्त किया हो, ऐसा प्रमाण न मिले तब तक उनकी दा कृतियाँ मानने में जान पड़ता है । उनके समयसम्बंबमें निश्चयरूपसे शका नहीं रहती-एक ना आचारांगविवरण जो अ. कहना अभी शक्य नहीं, तो भी वे सातवीं शताब्दीऔर नुपलब्ध है और दूसरी तरवार्थभाष्यकी उपलब्ध बड़ी नवमी शताब्दीक मध्यमें होने चाहियें, यह निःसन्देह वृत्ति। इनका 'गंधहस्ती' नाम किसने और क्यों रक्खा, है । क्योंकि उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में वमबंध इस विषयमें सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। इन्होंन आदि अनेक बौद्ध विद्वानोंका उल्लेख किया है। उसमें स्वयं तो अपनी प्रशस्तिमें गंधहस्तिपद जोड़ा नहीं, एक सातवीं शताब्दीके धर्मकीनि' भी हैं अर्थान जिससे यह मालूम होता है कि जैमा सामान्य तौर पर सातवीं शताब्दीके पहिले वे नहीं हुए, इतना तो नि. बहुनोके लिये घटिन होता है वैसा इनके लिये भी श्चित होता है। दूसरी तरफ नवमी शताब्दीके विद्वान घटिन हुआ है-अर्थात्, इनके किमी शिष्य या भक्त शीलाङ्कन गंधहस्ती नामसं उनका उल्लेख किया है,इससे अनुगामी ने इनका गंधहस्तीक तौर पर प्रसिद्ध किया वे नवमी शताब्दीके पहले किसी समय होने चाहिये । है। ऐमा करनेका कारण यह जान पड़ता है कि प्रस्तुत आठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान याकिनीमन हग्भिद्र सिद्धसन मैद्धान्तिक थे और श्रागमशाांका विशाल के प्रन्थोंमें प्रस्तुत सिद्धसनके सम्बन्धमें कोई उल्लेख जान पानके अतिरिक्त वे आगमविरुद्ध मालुम पड़ने , मिट बोट विटान विमानध' का 'मामिषगर" वाली चाह जैसी नमिद्ध बातोंका भी बहुत ही श्रा. कटक निश करते हैं - वेशपूर्वक ग्वंडन करने थे और सिद्धान्तपनका स्थापन तस्मादेनः पदमेतन वसुबन्योरामिषगद्धस्य गद्धस्येकरते थे । यह बात उनकी तार्किक-विरुद्धकी कटक पर्चा देखने में अधिक संभावित जान पड़ती है। इसके । ___ वाऽप्रेक्ष्यकारिण:""जातिरुपन्यस्ता वसुबन्धवैधेयेन।" सिवाय, उन्हाने तस्वार्थभाष्य पर जा बत्ति निम्बी है - ५, ७ की तत्वार्थभाष्यवृत्ति पृ०६८. ५०१ तथा २ । वह अठपह-हजार श्लोक प्रमाण होकर उस वक्तनक नागान-रचित धर्म ग्रह पृ०१३ पर जा भान्त पांच पाप पाते हैं. कीरची हई तस्वार्थनाय परकीमभी व्याख्याश्रो में मौर जिनका वर्णन गीलांकने सूत्रकृतांगकी (पृ. २१.) टीका भी कदाचिन बही होगी. और यदि गंजवार्मिक तथा प्र. दिया है, उनका उल्लेख भी मिद्रमेन करते हैं। - देखो. ७. 3D कार्तिक पहले ही इनकी वत्ति रची हुई होगी तो होगीता की भाष्य-अमि । ऐसा भी कहना उचित होगा किनस्वार्थसत्र पर उम "भिक्षुग्धर्मकीर्तिनाऽपि विरोध उक्तः प्रमाणवक्त तक अस्तित्व रम्बनेवाली सभी श्वेताम्बरीय विनिश्चयादो।" और दिगम्बरीय व्याल्याप्रोमें यह सिद्धसनकी ही -प्र.५ तचाभाष्यत्ति १० ३६७५०४ । वृत्ति पड़ी होगी। इस बड़ी वृत्ति और उसमें किये ३ "शास्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्" *समन्तभाका गम्भास्ति महाभाय यदि इस तत्वा.सूत्रकीही "शाखपरिक्षाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पज्यैः। प्या-ज्या को तब एसा करना उचित नहीं होगा क्योंकि उसकी सत्या श्रीगम्भहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमशिष्टम।।" E-हजार पतलाई जाती है। -सम्पादक --प्राचारोगटीका पृ०१ तथा २ की शरमात ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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