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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] | महाकवि रन्न एल०, श्रीवेंकटरामय्या एम० ए०, एल० एल० बी०, मुखसे उन्हें सुनने के लिये उत्सुक रहा करते थे और सुब्रह्मण्य शास्त्री आदि पन्द्रह सोलह विद्वानोंके उसके वचनामृतसे मिश्रित उन्हीं कथा-कहानियों आदि विवेचनात्मक निबन्धोंका एक संग्रह २७० पृष्ठोंमें का आस्वादन कर श्रानन्द सागरमें मग्न हो जाते थे। पुस्तकाकार छपा है, जो कि श्रीमान् मैसूर-नरेशको रन्नने अपना बाल्यकाल प्रायः अध्ययनमें ही अर्पण किया गया है। पुस्तकमें श्रीमान् मैसूरनरेश, बिताया था। जब कुमारावस्थामें प्रवेश किया तब इस भगवान् अजितनाथ, भगवान्का जन्मकल्याण की रुचि विशेष अध्ययनकी ओर बढ़ी। माबापकी यनिवर्सिटीके छात्रोंका अभिनय चित्र, श्रवण परिस्थिति ठीक न होने तथा पासमें ही अपने योग्य वेल्गोलमें खुदी हुई रन्नकी प्रशस्ति आदि छह सात किसी अच्छे गुरुके न मिलने पर भी उसने हिम्मत नयनाभिराम तथा हृदयग्राही चित्र हैं । आज इसी नहीं हारी; वह हर्ष-शोकादिसे अभिभूत न होकर महाकविका कुछ परिचय मैं 'अनेकान्त' के पाठकोंकी अपने निश्चय पर अटल रहने वाला दृढव्रती, बातका भेट करता हूँ: पका और आनका पूरा था । इसलिये उसने अपनी ___ इस कविकोविदका जन्म शक सं० ८७० (सन उद्देश्य-सिद्धिके लिये देश छोडकर सुदूरवर्ती गंगराज्य ५४५) में अर्थात आजस ५८० वर्ष पर्व बीजापुर के मंत्री श्रीचामुण्डरायकं पास जाना स्थिर किया जिलान्तर्गत मुछाल नगरमें हुवा था । जिन वल्लभ और और वहाँ पहुँच भी गया। चामुण्डराय तो गुणीजनोंका अब्बालब्बे नामके जैन वैश्य दम्पनि इसके मा बाप थे। आश्रयदाता था ही, फिर वह ऐसे प्रतिभा सम्पन्न ये चडी बेच कर जीवन-निर्वाह करने वाले गरीब तीक्ष्ण बुद्धि सज्जनको पाकर उसकी सहायतासे कब गृहस्थी थे, इसीम सन्तानकी विशप शिक्षाकी व्यव- चकने वाला था । रन्न भी उत्तम आश्रयको पाकर स्था न कर पात थे । परन्तु रन्न जन्मम ही होनहार अल्पकालमें ही संस्कृत, प्राकृत तथा कर्णाटक भाषामें मालूम होता था, सुभग और सुम्बरादि उत्तम प्रकृति- निपुण हो गया और जैनन्द्रादि व्याकरण शास्त्र में भी योंने इसको अपनाया था, इसको देखते ही अनजान उसने पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही कर्णाटक आगन्तुक भी अपनाने लगता था और पडोसियोंका भाषामें कवित्व करनकी दैवी शक्ति भी उसे प्रकट तो यह नेत्राँजन तथा कर्णामृत ही बना हुआ था। तब हुई। अपने माबापका कितना प्यारा न होगा इस पाठक इस तरह महान विद्वान होकर रन्न जैनसिद्धान्त स्वयं ही समझ सकते हैं। रन्नके प्राकृतिक गुणों पर पढनके लिये तत्कालमें प्रसिद्ध गंगराज तथा चामुण्डमुग्ध होकर अकमर लोग उसे घेरे ही रहा करते थे । रायके गुरु श्री अजितसनाचार्यकी चरण-मेवामें वाल्यकालकी बोली वैसे ही सबको प्रिय लगती है फिर गया। उनके पास रह कर और जैनमतके रहस्यको रन्नकी तो बात ही अलग थी। इसकी ग्रहणशक्ति, अच्छी तरह जान कर वह वापिस गंगगजके दर्बार वर्णनशैली. और प्रतिभा बाल्यकालमें ही आश्चर्य- में आया और तब उसने अपनी अलौकिक विद्वनाम कारिणी थी । इसीसे कुछ लोग कथा-कहानियाँ और विद्वजनोंको मुग्ध कर दिया था। उस समय के विद्वाकोई गाना आदिक उमे सिखला कर पुनः उमक नोंमें यही एक सर्वोत्कृष्ट विद्वान गिना जाता था, इमी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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