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________________ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ इस पालोचना में मोमाजी की युक्ति के विरुद्ध समस्या-पर्ति जोकल्पना की गई है वह बहुत कुछ ठीक जान पड़ती [लेखक-सा रत्न पं०दरबारीलालजी ] है। इसके सिवाय, मैं इतना और भी कहना चाहता हूँ कि यदि श्री श्रोमाजी का यह लिखना ठीक भी मान हा! संसार अपार दुःख-मय है, आपत्ति तो साथ है; लिया जाय कि महाराणाकुम्भा और सांगा आदि द्वारा जीता ही रहता नहीं यदपि है एकान्त माला-जपी. कोई भी बलवान दीन-जनको होता नहीं नाथ है। उपार्जित अतुल सम्पत्ति प्रताप के समय तक सुरक्षित कालो हि व्यमनप्रसारितकरो गह्नाति दूरादपि ।। थी-वह खर्च नहीं हुई थी', तो वह संपत्ति चित्तौड़ १(काल बुरी तरहसे हाथ फैलाए हुए दूग्मे ही पकड़ लेता है । या उदयपर के कुछ गप्त खाजानों में ही सुरक्षित रही छाने से नभ में सनीर धन के आनन्द हे मोर को. होगी। भले ही अकबर को उन खजानों का पता न रागीको प्रिय है वसन्त, प्रिय है काली निशा चोर को। चल सका हो परन्तु इन दोनों स्थानों पर अकबर का सेवा-धर्म-सुलग्न साधु जनको सेवा यथा है भली, अधिकार तो परा होगया था और ये स्थान अकबरकी २घमोते न तथा सुशीतलजलैः स्नानं न मुक्तावली ।। फौज से बराबर घिरे रहते थे, तब युद्ध के समय इन २(घाम से पीड़ित मनुष्य को शीतल जल का स्नान या मुक्तागुप्त खजानोंसे अतुल संपत्ति का बाहर निकाला जाना वली भी वैसी भली मालूम नहीं होती ।) कैसे संभव हो सकता था । और इस लिये हलदीपाटी आत्मन् ! मानव देह धार करके रक्खी न तने दया, के युद्ध के बाद जब प्रतापके पास पैसा नहीं रहा तब तो चिन्तामणि-तुल्य जन्म मिलना हा! व्यर्थ तेरा गया। भामाशाह ने देश हित के लिये अपने पास से-खुदके जो पाके नरजन्म है न करता कल्याण मोही वृथा, ७ ३पश्चात्तापयतो जरापरिगतः शोकाग्निना दह्यते । उपार्जन किये हुए द्रव्यमे-भारी सहायता देकर प्रताप का यह अर्थ-कष्ट दूर किया है। यही ठीक ऊँचता है। २० (वह जराजीर्ण होकर पश्चात्तापसे युक्त हुमा शोकान्निसे जलतः ही अमरसिंह और जगतसिंह द्वारा होने वाले खचों देवेन्दादिक भी नहीं बच सके आपत्ति पीछे लगी, की बात, वे सवतो चित्तौड़ तथा उदयपुरके पुनः हस्त- आया प्रात कि चन्द्रकी कुमुदकी देखी नाभा जगी। गत करने के बाद ही हुए हैं और उनका उक्त गप्त दुखापन्न कहाँ नहीं जगत में श्रापन्न अात्मा कॅपी; खजानों की सम्मति से होना संभव है, तब उनके पा. ४वध्यन्ते निपुणेरगाधसलिलान्मत्स्याः समुद्रादपि ।। धार पर भामाशाह की उस सामयिक विपुल सहायता ४(उपायकुशल मनुष्यों द्वारा भगाध जल समुद्र से मी मन्य तथा भारी स्वार्थ त्यागपर कैसे आपत्ति की जा सकती पकड़े और मारे जाते हैं।) है ? अतः इस विषयमें श्रोमाजीका कथन कुछ अधिक कैसे हैं ? बस दुःख-द्वंद-मय है, आपत्ति के साथ है; युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । और यही ठीक जंचता . ये संसार महीप मोह-रिप के साम्राज्य के हाथ है। आके और विमोह पूर्ण करके धोखा दिया सर्वदा; है कि भामाशाह के इस अपूर्व त्याग की बदौलत ही ५न त्वं निर्षण ! लज्जसे ऽत्र जनने भोगेषु रन्तुं सदा ॥ उस समय मेवाड़ का उद्धार हुआ था, और इसी लिये, - । पता भी, हे नियः भीमा में सदा रमते हुए तुझे इस संसारमें भाज भी भामाशाह मेवाडोवारकके नामसे प्रसिद्ध है। '. लज्जा नहीं पाती। अयोध्यापसाद गोयलीय
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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