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________________ समन्तभद्राश्रमविज्ञप्ति नं०४ समन्तभद्राश्रम - विज्ञप्ति नं० ४ 505 लुप्तप्राय जैन ग्रंथोंकी खोज के लियेवृहत पारितोषिक की योजना फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] समन्तभद्राश्रममें 'साहित्यिक पारितोषिक फंड' नामका एक विभाग खोला गया है, जिसका पहला काम लुप्तप्राय जैन ग्रंथों की खोज । इसके लिये आश्रमकी विज्ञप्ति नं०३ द्वारा २७ ऐसे प्राचीन संस्कृत ग्रंथोंके नाम प्रकट किये गये थे जिनके नामादिकका तो पता चलता है - कितनों के वाक्य भी उद्धृत मिलते हैं- परन्तु वे ग्रंथ मिलते नहीं । और न इस बातका अभी तक कुछ पता चल पाया है कि वे कहाँ के भंडार में मौजूद हैं - किस भंडार की काल कोठरी में पड़े हुए अपना जीवन शेष कर रहे हैं अथवा कर चुके हैं। साथ ही, उनकी खोज के लिये १५००) रु० के पारितोषिक तजवीज करके धर्मात्मा सज्जनों से प्रार्थना की गई थी कि वे अपनी अपनी तरकसे जिस जिस पन्थ पर पारितोषिक दे कर उसका उद्धार करना चाहें उसमे शीघ्र सूचित करने की कृपा करें, जिससे खोजका काम प्रारंभ हो सके । हर्षका विषय है कि आश्रम की यह आवाज सुनी गई और अधिकांश मित्रोंकी कृपामे सभी ग्रंथों पर पारितोषिक भरा जा चुका है। अतः श्राज, इन ग्रंथांका कुछ विशेष परिचय देते हुए, इनकी खोज को समुचित उत्तेजन देने के लिये पारितोषिक की निश्चित योजना के साथ यह विज्ञप्ति प्रकट की जाती है । साथ ही, इस काम में दिलचस्पी लेने वाले सभी सज्जनोंसे प्रार्थना की जाती है कि वे अपने अपने नगर प्रामों तथा आसपास के शास्त्रभंडारों में इन प्रन्थोंकी परी खोज करें। इसके लिये दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके भंडारोंको खूब टटोला जाना चाहिये। बौद्धों तथा हिन्दुओं के शास्त्र भंडार भी देखे जाने की जरूरत है; क्योंकि समय समय पर बहुतसे २५३ अजैन विद्वानों ने जैनका विशेष परिचय पान अथवा 1 खंडन-मंडनादिककी दृष्टि से जैन प्रन्थोंका संग्रह किया है । जिस प्रकार जैनभंडारोंसे कितने ही अजैन प्रथां का पता चल कर उनका उद्धार हुआ है उसी प्रकार श्रजैनभंडारोंसे भी कुछ जैन ग्रन्थों का पता चलने की बहुत बड़ी संभावना है। कितने ही प्रन्थ विद्वानोंके घरों पर उनके निजी संग्रह में अथवा साधुओं के मठोंमें होते हैं उनसे भी मिल कर इनका पता चलाना चाहिये । और जर्मनी - योम्पादि विदेशों की लायब्रेरियों में तो खास तौर से ढूँढ खोज होनी चाहिये; क्योंकि वहाँ सब ओर से ही हस्तलिम्बित प्रन्थोंकी प्राचीन तथा अर्वाचीन प्रतियाँ पहुँची हैं। किसी भी अप्रसिद्ध शास्त्रभंडार अथवा हस्तलिखित प्राचीन प्रन्थोंके संग्रह बाली लायब्रेरी से दो चार या दस बीस प्रन्थोंका इनमें से एक साथ मिल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, और इस लिये खोज करने वालोंके सामने २७ प्रन्थोंकी एक लम्बी लिस्ट होनेमे उन्हें अपनी खोज में सफलता मिलने की काफ़ी संभावना है । समन्तभद्रादिके जीवसिद्धि आदि मूल ग्रन्थ परिमाणमें छोटे होंगे, उनके गुटकों में मिलने की अधिक संभावना है, इससे जिन गुटकोंमं ग्रन्थ-सूची या विषय-सूची लगी हुई न हो उनके सभी पन्ने पलट कर देखने चाहियें । खोजका यह काम वास्तव में साहित्य सेवाका एक खास काम है और इस लिये धर्मका अंग है। जो लोग प्राचीन कीर्तियोंके संरक्षण और उद्धार जैसे पुण्य कृत्यों के महत्व को समझते हैं उन्हें इस विषय में कुछ भी कहने अथवा बतलाने की जरूरत नहीं है । इसीसे इल सेवाकार्यमें पारितोषिककी मात्रा पर कोई खयाल न
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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