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________________ २५४ अनेकान्त होना चाहिये। यह तो एक प्रकार का पुरस्कार और मत्कार है - मेवाका कोई मूल्य नहीं । और इस लिये किसी न किसी रूप से सहायक होकर इस पुण्य यज्ञमें भाग लेना चाहिये । भण्डारोंके अधिपतियों अथवा प्रबन्धकका चाहिये कि वे खुद खोज कराएँ तथा खोज करने वालों को उनके इस कार्य में पूरी सहूलियतें देवें । जो परिश्रम शील सज्जन किसी ग्रंथ की खोज लगाएँगे वे ही मुख्यतया उसके उद्धारक समझे जायँगे । पारितोषिक - सम्बंधी नियम १ जो कोई भी सज्जन इस विज्ञप्तिमें दिये हुए किसी भी मन्थ की खोज लगा कर सबसे पहले उसकी सूचना आश्रम को नीचे लिखे पते पर देंगे और फिर बादको प्रन्थकी कापी भी देवनागरी अक्षरोंमें भेजेंगे या खुद कापीका प्रबन्ध न कर सकें तो मूल प्रन्थ ही कापीके लिये आश्रमको भेजेंगे, तो वे उस पारितोषिकको पाने के अधिकारी होंगे जो प्रन्थ के लिये नियत किया गया है। २ उक्त सूचनाके साथमें प्रथके मंगलाचरण तथा प्रशस्ति (अन्तिम भाग) की और एक संधिकी भी (यदि संधियाँ हों तो) नक़ल भानी चाहिये । यदि सूचना तार द्वारा दी जाय तो उक्त नक़ल उसके बाद ही डाक रजिस्टरीसे भेज देनी चाहिये। ऐसी हालतमें तारके मिलने का समय ही सूचना प्राप्ति का समय समझा जायगा । ३ ग्रंथकी लोकसंख्या यदि २०० से ऊपर हो तो कुल कापीकी उजरत पाँच रुपये हजारके हिसाब मे पारितोषिकसे अलग दी जायगी । ४ कापी यदि ग़लत अथवा अन्य प्रकार से संदिग्ध होगी तो उसकी मूल कापसे जाँच कराना प्रेषकका कर्तव्य होगा । ५. कापी अथवा मूल ग्रन्थकी प्राप्तिके बाद यह निवित हो जाने पर कि ग्रंथ वही है जिसके लिये पारितोषिक निकाला गया है, पारितोषिककी रक्रम [ वर्ष १, किरण ४ ६ खोजकर्ता महाशयको भेट कर दी जायगी - उनके पास मनीआर्डर आदि द्वारा भेज दी जायगी। जो भाई पारितोषिक के अधिकारी होकर भी पा - रितोषिक न लेना चाहें उनके पारितोषिककी रक्क्रम 'साहित्यक पारितोषिक फंड' में जमा की जायगी ७ वह उनकी ओर से किसी दूसरे ग्रंथकी खोज अथवा रचनाके पारितोषिकमें काम लाई जाएगी। आश्रमको ग्रंथप्राप्ति की सूचना देनेकी अवधिका समय ३१ अगस्त सन् १९३० तक है। परंतु पारितोषिक-प्राप्ति के लिये अवधिके खयाल में अधिक न रह कर शीघ्र से शीघ्र सूचना देने का यत्न करना चाहिये । खोजकर्ताओं से निवेदन जो भाई प्रन्थों की खोजका काम प्रारंभ करें उनमे निवेदन है कि, वे एकतो जिन जिन शास्त्रभंडारों का अवलोकन करें उनमें उन्हें प्रकृत ग्रन्थोंके अतिरिक्त दूसरे जो कोई भी अश्रुतपूर्व ग्रन्थ मालूम पड़ें उनको भी वे जरूर नोट करते जायँ और उसकी सूचना श्र श्रमको देने की कृपा करें; दूसरे यह कि, खोज करने पर उन्हें इन ग्रन्थोंमेंसे यदि कोई गन्थ न भी मिले तो भी वे इस बातकी सूचना आश्रम को जरूर देखें कि उन्होंने अमुक अमुक शास्त्रभंडारों को इस कामके लिये खोजा है और उनमें ये गून्थ नहीं मिले, जिससे खोज का कुछ विशेष अनुभव हो सके और उसे व्यबस्थित रूपसे चलाने में सहायता मिल सके । खोजके ग्रंथोंका परिचय और पारितोषिक (१) जीवसिद्धि - यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्र का रचा हुआ है। जिनसेनाचार्य ने 'हरिवंशपुराण' में इसे भगवान् महावीरके वचनों जैसा महत्वशाली बतलाया है जीवसिद्धि- विधायीह कृतयुक्तयनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृ भते ॥ - पारितोषिक, १००)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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