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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८,९,१० दोनों को स्थान होते हुए भी जैन दर्शन में चारित्र को आत्मविभुत्व-वादी होने से उनके मतमें मोक्षका स्थान ही मोक्ष का साक्षात् कारण रूप से स्वीकार कर के कोई पृथक् होवे ऐसी कल्पना ही नहीं हो सकती; परंतु ज्ञान को उसका अंगरूप से स्वीकार किया गया है, जैनदर्शन स्वतंत्र आत्मतत्व-वादी है और ऐसा होत जब कि बौद्ध और योग दर्शन में ज्ञान को ही मोक्षका हुए भी आत्मविभुत्व-वादी नहीं, इससे उसको मोक्ष साक्षात कारण मान कर ज्ञान के अंग रूप से चारित्र का स्थान कहाँ है इमका विचार करना पड़ता है और को स्थान दिया गया है । यह वस्तु उक्त तीनों दर्शनों यह विचार उसने दर्शाया भी है; तत्वार्थक अन्तमे के साहित्य का और उनके अनुयायी वर्ग के जीवनका वाचक उमास्वाति कहते हैं कि "मुक्त हुए जीव हरेक बारीकी से अभ्याम करने वाले को मालम हुए बिना प्रकारके शरीर से छूटकर ऊर्द्धगामी होकर अन्नमें नहीं रहती; ऐसा होने से तत्वार्थ की चारित्रमीमांसामें लोकके अग्रभागमें स्थिर होते हैं और वहाँ ही हमेशा चारित्रल ती क्रियाओं का और उनके भेद-प्रभेदोंका के लिये रहत हैं"। अधिक वर्णन होवे तो यह स्वाभाविक ही है। ___ तुलना को पग करने से पहले चारित्रमीमांसा के
नोटअन्तिम साध्य मोक्ष के स्वरूपसम्बंध में उक्त दर्शनो की क्या और कैमी कल्पना है वह भी जान लेनी श्रा
इस लेखमे लेखक महोदय ने अपने विशाल तथा वश्यक है । दुख के त्याग में से ही मोक्ष की कल्पना
गहरे अवयन को लेकर 'तत्वार्थसूत्र' पर एक प्रकार उत्पन्न हुई होन में सभी दर्शन दःख की प्रात्यन्तिक का भारी तुलनात्मक विचार प्रस्तुत किया है, जो निवृत्तिको ही मोक्ष मानते हैं । न्याय६०, वैशेषिक६१,
विद्वानोंको इस ग्रन्थ-सम्बंधमें तुलनात्मक अध्ययनकी योग और बौद्ध य चारों ऐमा मानते हैं कि दुःख के
. दिशा का कितना ही बोध कराता हुआ उन्हें सविशेष
रूप से अध्ययन की प्रेरणा करता है और इस लिये नाश के अतिरिक्त मोक्षमें दूसरी कोई भावात्मक वस्तु
अभिनन्दनीय है। जहाँ तक मैं समझता हूँ 'तत्वार्थनहीं है, इसमे उनके मन में मोक्ष में यदि सुख
सत्र पर इस प्रकारके तुलनात्मक विचारोंको प्रस्तुत होवे तो वह कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, बल्कि उस दुःख
करनेका यह पहला ही कदम है जो लेखक महोदयने के अभाव की पूर्ति कम ही है, जब कि जैनदर्शन वे
उठाया है । वे इस तुलनामें कहाँ तक सफल हुए है, दान्त के सदृश ऐसा मानना है कि मोक्षअवस्था मात्र सत्यके कितने निकट पहुँचे हैं अथवा पहुँचनेका उन्होंने दुःखनिवृति नहीं, बल्कि इसमें विपयनिरपेक्ष वा. प्रयत्न किया है और उनकी यह तुलना क्याक्या नतीजे भाविक सुग्व जैसी स्वतन्त्र वस्तु भी है; मात्र सुग्व ही निकालती है, किस किस विषय पर क्या कुछ असर नहीं बल्कि उसके अतिरिक्त ज्ञान जैस दूसरे म्वाभाविक या प्रकारा डालती है अथवा किसने किसका कितने गणोंका आविर्भाव जैनदर्शन इस अवस्थामें स्वीकार अंशोमें अनुसरण किया इस बातकं समझाने में मदद करता है, जब कि दूमर दर्शनों की प्रक्रिया ऐसा स्त्री- करती है, ये सब बातें ऐमी हैं जो विज्ञ पाठकोंकी गहरी कार करने से इनकार करती है । मोक्षके स्थान-संबंध जाँच तथा विशेष खोजसे सम्बंध रखती हैं। आशा है में जैन दर्शनका मत सबसे निराला । बौद्धदर्शनमें विद्वान लोग इस विषय पर विशेष प्रकाश डालने की तो स्वतन्त्र आत्मतत्वका स्पष्ट स्थान न होने से मोक्षके कृपा करेंगे और इस तरह समाज में तुलनात्मक स्थानसंबंधमें उसमें से किसी भी विचार-प्राप्ति की विचारोंको उत्तेजन देकर विकासका मार्गअधिकाधिक आशा को स्थान नहीं है, प्राचीन सभी वैदिक दर्शन प्रशस्त बनाएँगे । ६० देखो, १, १, २२ । ६१ देखो, ५, २ १८ ।
-सम्पादक