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________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा ४५३ भगरान महावीर की शिक्षा लेखिका-श्रीमती उत्कल भारतभूषण डा० कुन्तलकुमारी देवी ] FOR ब से पहले मैं बिना किसी संकोच के चेष्टा के बाद महान सत्य के उन सिद्धान्तो की ओर स्पष्टतया यह बतला देना चाहती हूँ अपनी आँखें फेरली हैं, जिन पर मैंकड़ो वर्ष हुए, वर्तकि मैं एक अजैन व्यक्ति हूँ परन्तु मान वैज्ञानिक युग के प्रारंभ से पहले, आत्मसंयमी, फिर भी भारतवर्ष के महान नेता सर्वसंगत्यागी, दिव्यदृष्टि, सष्टि में सर्वानन्दमयी, पूर्ण स्वामी महावीर के प्रति मेरे हृदयमे तथा स्वतंत्रात्मा, तीर्थकर,महान तथा सुकृती, श्रेष्ठ और भक्ति-भाव की जो मात्रा है........ ६ दिव्य स्वामी महावीरने श्रावह बहुत चढ़ी बढ़ी है। एक अजैन विदुपी बहन ने कुछ जैन' ग्रंथों का अध्ययन करके भगवान महावीरकी चरण और उपदेश किया था, ससार इस समय एक शिक्षा का जो अनभव किया है और दसरे : : और जो आज भी विज्ञान के सत्यका-वस्तुतः एक महान् : धमों के साथ उसकी तलना करके जो सार : सारभत विषयो तथा मानवीय मत्य को-अनुभव करने के खींचा है वह सब पाठकोको इस लेखसे जान : ज्ञान के साथ टक्कर लेने की लिये जागत होरहा है, जिस: पड़ेगा। यह महत्वपूर्ण मूल लेख अंग्रेजी भाषा वास्तविक शक्ति को लिये के मूल तत्व (सिद्धान्त) भा में लिखा गया है,श्रीमतीजी इस भाषाकी एक उत्तम लेम्बिका है और उन्होंने गत महावीर : ग्त माता के हृदय में शताजयंतीके अवसर पर देहलीमें इसे खुद ही अपने : महान सत्यके उन्हीं सार दिदयो से गुप्त पड़े हैं। लोगों भापण के रूप में पढ़ कर सुनाया था, और : सिद्धान्ती पर आज कुछ विको इन तत्त्वों के जानने और इस पर विद्वत्समाजकी ओरसे स्वब हर्प प्रकट : चार किया जाता है। उनकी विस्तृत व्याख्या करने किया गया था ।वास्तवमें यह सब जैनसाहित्य : वस्तुतः सत्य संसार की के प्रचारका माहात्म्य है। ज्यों ज्यो जनसाहि-: का कोई बहुत बड़ा अवसर त्यका प्रचार होता जाता है और सहृदय वि-: : मूल वस्तु है, सत्य पर ही प्राप्त नहीं हुआ, उन्होंने इसके द्वानोके लिये उसकी प्राप्तिकामार्ग सुगम किया : अखिल सष्टि निर्भर है और लिये न तो इच्छा ही की और : जाता है त्यों त्यो जैनधर्म अथवा भ०महावीर : सत्य ही हमाग अंतिम लक्ष्य न आवश्यक बलिदान-: की शिक्षाओंके प्रति लोगोका भक्तिभाव और : है और वह सत्य है स्वात्मास्वार्थत्याग ही किया । वे: प्रेम बढ़ता जाता है। और इमलिये जैनसाहि नुभव । यह स्वात्म-अनुभव, केवल इस समय तथा शक्ति त्य के अधिकाधिक प्रचार की ओर जैनस: माजको खास तौर में ध्यान देना चाहिये । जिसे हज़रत ईसा ने कहा है का दुरुपयोगही समझते रहे। -सम्पादक कि - 1. Thy || '' परन्तु अब समय बदल गया ........ ............ "अपने आपको जानो"कदाहै । संसार ने शताब्दियों के दुःख, कष्ट तथा विषय- पिप्राप्त नहीं होगा जबतक कि हम उन महान सिद्धान्तों वामनाओं की पूर्ति द्वारा हर्ष और आनन्दकी निरर्थक का अनुष्ठान नहीं करेंगे जो कि संख्या में तीन हैं ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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