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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८, ९, १० इनमें से पहला सिद्धान्त है अहिंसा, दूसरा है नश्वर किसी एक नित्य परमात्मा पर श्रद्धा नहीं रखते । और वासनओका जीतना, और तीसरा है आत्माका परमात्म येही ईश्वर को न मानने वाले लोग कहते हैं कि केवल पद को प्राप्त होना अथवा सिद्ध करना । एक खटमल को मारना भी पाप है । परन्तु मैं कहती अब में इन तीनों को एक एक करके लेनी हूँ:- हूँ कि हाँ, यह वस्तुतः पाप है। जो मनुष्य एक छोटे
से असहाय कीड़े को मारने में संकोच नहीं करते वे १ अहिंसा
वस्तुतः एक दूसरे को घात करने में कोई संकोच नहीं अहिंसा के विषय में मैं कह सकती हूँ कि पृथिवी- कर सकते । इमी से तो वे ईश्वर के नाम पर हिंसा तल पर कोई भी धर्म ऐमा नहीं है जिसने अहिंसा का करत-बलि चढाते हैं, धर्म के नाम पर एक दूसरे व्यवहार अथवा उसके व्यवहारका उपदंश ऐसी पूर्ण- का रक्तपात करते हैं। यहूदियों और मुसलमानों के ता तथा उत्तमताक माथ किया हो जैमाकि जैनियों के धार्मिक इतिहास को देखिये ! ईश्वर के नाम पर नगर धर्म(जैनधर्म)ने किया है । हम इसके साथही बौद्धधर्म के नगर उजाड़ दिये गये, बच्चों तथा स्त्रियों को घरको देखते हैं जिसका सिद्धान्त इस विषय में वस्तुतः द्वार से विहीन और अनाथ कर दिया गया ! भारत जैनधर्म के समान है, कदाचित् मनुष्यके अन्तिम लक्ष्य का पुरातन इतिहास देखिये ! देवताओं के नाम पर
और कर्मसिद्धान्त की अपेक्षा दोनों में थोड़ा भेद है; सुर अमुर मारे गये तथा निर्दयता के साथ नष्ट कर परन्तु क्या यह सत्यार्थ नहीं है कि बौद्ध धर्म अहिंसा दिये गये । ये असुर उन आर्यजनों (आदिम वासियों) में जो सत्य संनिहित है उसके व्यवहार की मीमा सं के अतिरिक्त और कोई व्यक्ति न थे जो उस समय दूर चला गया है ? बौद्धधर्म में यद्यपि सभी छोटे छोटे भारत में निवास करते थे (बाहर के ) आर्यों ने जीवों के लिये भी दया करने का विधान है किन्तु उन्हें मार डाला, उनके घर-बार बर्बाद कर दिये और बौद्ध लोग इस नीति का उस प्रकारस अनमरण नहीं जो कुछ उन के पास अच्छी से अच्छी वस्तुएँ थी वे करते जैसा कि जैनधर्ममें इसका अनुष्ठान किया जाता सब छीन ली। और इन रक्त पातों का धर्मयुद्ध कह है । सभी बौद्ध देशों में लोग मांस और मछली खाते कर महाकाव्य लिग्वे गये तथा ललित साहित्य की हैं और इस प्रकार वे अहिंसा के वास्तिविक श्राचारको रचना की गई । असंख्य शताब्दियों से संमारके इतिदूषित करते हैं। परन्तु जैनधर्म में ऐसी विधि कहीं हास में धर्म का आचार हिंसा के आधार पर होता भी नहीं पाई जाती। यह विधि कैसे बन सकती है जब रहा है और उस धर्म के व्याख्याताओं ने अपने परकि दूसरा ही पद नश्वर वासनाओंको जीतना है । यदि मात्मा को परम दयालु, विश्वप्रेमी तथा न्याय और मनुष्य अपने सजातीय प्राणियों के मारने से अपने कृपा का सातिशय अवतार बतलाया है ! को नहीं रोक सकता तो वह नश्वर विषयवासनाओं ईसाई मत के सिद्धान्तों और वर्तमान ईसाई सं. को क्यों कर जीतेगा ? लोग जैनियों की हँसी उड़ाते सार के व्यवहारों को देखिये ! आपको अवश्य ऐसे है कहते हैं कि ये प्रति को लिये हुए हैं, ये निरर्थक स्वर्गीय ईश्वर से भेट होगी जो समस्त साधारण पातघोर तपस्यायें करते हैं, ये नास्तिक हैं, ये हमारी तरह कियों को दहकती हुई अग्नि में तथा गंधक के शाश्वत