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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनकान्तको मयांदा है ? विचार करनेसे और अनेकान्तदृष्टि के साहित्यका पैदा कर देता है। इस तरह पूर्णदर्शी और अपूर्णदर्शी अवलोकन करनेसे मालूम होता है कि अनेकान्तदृष्टि सत्य सभी सत्यवादियोंके द्वारा अन्तमें भेद और विरोधकी पर खड़ी है । यद्यपि, सभी महान पुरुष सत्यको पसन्द ही सामग्री आप ही आप प्रस्तुत हो जाती है या दूसरे करते हैं और सत्यकी ही खोज तथा सत्यके ही निरूप- लोक उनसे ऐमी सामग्रो पदा कर लेते हैं। णमें अपना जीवन व्यतीत करते हैं। तथापि मत्यनिरू- ऐसी वस्तुस्थिति देखकर भ० महावीग्नं सांचा पणकी पद्धति और मत्यकी खोज सबकी एकसी नहीं कि ऐसा कौन सा रास्ता निकाला जाय जिससे वस्तुका होती । बुद्धदेव जिस शैनीमे मत्यका निरूपण करते पूर्ण या अपर्ण मन्यदर्शन करने वालेके साथ अन्याय है या शंकराचार्य उपनिषदोंक आधार पर जिस ढंगले जम ढंगले न हो । अपूर्ण और अपनेस विरोधी होकर भी यदि हो। और विरोधी टोकर भी सत्यका प्रकाशन करते हैं उमसे भ० महावीरके मत्य- दुसरेका दर्शन सत्य है इसी तरह अपूर्ण और दुसरं प्रकाशन की शैली जदा है। भ० महावीरकी सत्य- म विरोधी होकर भी यदि अपना दर्शन सत्य है तो प्रकाशनकी शैनीका ही दूसरा नाम 'अनेकान्नवाद' दोनों को ही न्याय मिले, उसका भी क्या उपाय है? है । उसके मूल्यमें दो तत्व हैं-पूर्णता और यथार्थता। इम चिंतनप्रधान तपम्याने भगवानको अनकान्तदृष्टि जो पूर्ण है और जो पूर्ण हो कर भी यथार्थ रूपसे सुझाई, उनका मत्यशोधनका संकल्प सिद्ध हुआ, प्रतीत होता है वही मत्य कहलाता है। उन्होंने उस मिली हुई अनकांतदृष्टिकी चाबीमे वैयक्तिक अनेकान्तकी खोजका उद्देश और उसके और सामष्टिक जीवनकी व्यावहारिक और पारमा थिक समस्याओं के नाले खोल दिय और समाधान प्रकाशनकी शर्ते प्राप्त किया । तब उन्होंन जीवनोपयोगी विचार और वस्तुका पूर्णरूपमें त्रिकालाबाधित-यथार्थ दर्शन आचारका निर्माण करते समय उस अनेकान्तदृष्टिको हाना कठिन है, किमीका वह हो भी जाय तथापि निम्नलिम्वित मुख्य शतों पर प्रकाशित किया और उसका उसी रूपमें शब्दोंके द्वारा ठीक ठीक कथन उमक अनमरणका अपने जीवनद्वारा उन्हीं शतों पर करना उस सत्य द्रष्टा और मत्यवादीके लिये भी बड़ा उपदेश दिया । वे शतं इस प्रकार है :कठिन है । कोई उस कठिन कामको किमी अंराम गग और द्वेपजन्य संस्कारोंक वशीभन न करनेवाले निकल भी आएँ तो भी देश, काल, परि- हाना-अर्थात तंजस्वी मध्यस्थभाव रखना। स्थिति, भाषा और शेनी आदिके अनिवार्य भेदक जब तक मध्यस्थभावका पूर्ण विकाम न हो कारण उन सबके कथनमें कुछ न कुछ विरोध या भेद- तब तक उस लन्यकी प्रार ध्यान रग्ब कर केवल सत्यका दिखाई देना अनिवार्य है । यह ता हुई उन पूर्णदर्शी की जिज्ञासा रग्वना । और मत्यवादी इनगिने मनुष्य की बात, जिन्हें हम कैसे भी विरोधी भानमान पन न घवगना सिर्फ कल्पना या अनुमानम समझ मकत और मान और अपन पक्षकी तरह उस पक्ष पर भी श्रादरपूर्वक सकते हैं-साक्षात् अनुभवसे नहीं। हमारा अनुभव विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्षी तो साधारण मनुष्यों तक परिमित है और वह कहता तरह तीव्र समालोचक दृष्टि बना। है कि साधारण मनुष्योंमें भी बहुनसे यथार्थवादी ४ अपन नथा दुसरांक अनुभवोममें जा जो अंश होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। ऐमी स्थितिमें यथार्थ- ठीक ऊंचे-चाहं वै विरोधी ही क्यो न प्रतीत होवादिता होने पर भी अपूर्ण दर्शनके कारण और उमे उन सबका विवेकप्रज्ञाम समन्वय करनेकी उदारताप्रकाशित करनेकी अपूर्ण सामग्रीकं कारण सत्यप्रिय का अभ्यास करना और अनुभव बढ़ने पर पूर्वक मनुष्योंकी भी समझमें कभी कभी फेरे आजाता समन्वयमें जहाँ गलती मालूम हो वहीं मिथ्याभिमान, है और संस्कारभेद उनमें और भी पारस्परिक टक्कर छोड़ कर सुधार करना और इसी क्रमम आगे बढ़ना ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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