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अनकान्त
वर्ष १, किरण १ साहित्यमें नहीं पाया जाता । तो भी भ० महावीर रक्षित जैसे विविध दर्शनाभ्यासी विद्वानके इस कथनमें के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्यमें और उनके समकालीन हमें तनिक भी संदेह नहीं रहता कि मीमांसक, जैन बौद्ध माहित्यमें अनेकांतदृष्टि-गर्भित बिखरे हुए और कापिल तीनों दर्शनों में अनेकांतवादका अवलविचार थोड़े बहुत मिन ही जाते हैं । इसके म्बन है। परन्तु शांतरक्षितके कथनको मानकर और सिवाय, भ० महावीरके पूर्ववर्ती भ. पार्श्वनाथ हुए मीमांसक तथा सांग्व्य-योगदर्शनके ग्रन्थोंको देखकर भी हैं जिनका विचार, यद्यपि, आज उन्हींक शब्दों में- एक वान तो कहनी ही पड़ती है और वह यह कि ' असल रूपमें-नहीं पाया जाता फिर भी उन्होंने यद्यपि अनकांतदृष्टि मीमांसक और सांख्य-योगदर्शन अनेकांत-दृष्टिका स्वरूप स्थिर करनेमें अथवा उसके में भी है तथापि वह जैनदर्शनके ग्रन्थोंकी तरह अति विकासमें कुछ न कुछ भाग जला लिया है, ऐसा पाया म्पष्ट रूपमें और अति व्यापक रूपमें उन दर्शनोंक ग्रंथों जाता है । यह सब होते हुए भी उपलब्ध साहित्यका में नहीं पाई जाती । जैन विचारकोंन जितना जोर और इनिहाम स्पष्ट रूपसे यही कहता है कि २५०० वर्षके जितना पुरुपार्थ अनकांतदृष्टि के निरूपणमें लगाया भारतीय माहित्यम जा अनेकांतर्राष्ट्रका थाड़ा बहत है। उसका शतांश भी जैनंतर किसी भी दर्शनक असर है या खाम नौग्म जैन वाङमयमें अनेकांत- विद्वानाने नहीं लगाया है । यही कारण है कि आज हटिका उत्थान होकर क्रमशः विकाम होता गया है जब 'अनेकांतवाद' या 'स्याद्वाद' शब्दका उच्चारण कोई
और जिम दूसरे समका नीन दार्शनिक विद्वानोंने अपने करता है तब सुनने वाला विद्वान उससे सहसा जैनअपनं ग्रंथोंमें किसी न किसी रूपमें अपनाया है उमका दर्शनका ही भाव ग्रहण करता है । आजकलके मुग्व्य श्रेय तो भ० महावीरको ही है । क्योंकि हम बड़े विद्वान तक बहुधा यही समझते हैं कि 'म्याद्वाद' अाज देखते हैं तो उपलव्य जैन प्राचीनतम ग्रंथामें यह तो जैनोंका ही एक वाद है । इस समझका कारण अनेकांतदृष्टिकी विचारधाग जिम स्पष्ट रूपमें पान यह है कि जैनविद्वानीने म्याद्वादके निरूपण और है उस स्पष्ट रूपमें उसे और किसी प्राचीन ग्रंथमेस समर्थनमें बहुत बड़े बड़े ग्रंथ लिख डाले हैं, अनेक नहीं पात ।
यक्तियांका आविर्भाव किया है और अनकान्तवादक ____ नालंदा प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठका आचार्यशांत- शस्त्रकं बलम ही उन्होंने दूमरं दार्शनिक विद्वानोंक रक्षित अपने 'तत्त्वमग्रह' ग्रंथम अनेकांतवादका साथ कुश्ती का है। परीक्षण करते हुए कहता है कि 'विप्र-मीमांसक, इस चर्चासे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक तो निग्रंथ-जैन और कापिल-सांख्य इन तीनोंका अनेकांत- यह कि भगवान महावीरने अपने उपदेशमें अनेवाद समान रूपसे ग्यंडित हो जाता है । इस कथनस कान्तवादका जैसा स्पष्ट आश्रय लिया है वैसा उनके यह पाया जाता है कि सातवीं आठवीं सदीकं बौद्ध समकालीन और पूर्ववर्ती दर्शनप्रवर्तकों में से किसीन आदि विद्वान अनेकांतवादको केवल जैनदर्शनका भी नहीं लिया है। दूसरी बात यह कि, भ० महावीरके ही वाद न समझते थे किन्तु यह मानते थे कि मीमां- अनुयायी जैन आचार्योन अनकान्तदृष्टिका निरूपण मक, जैन और सांख्य तीनो दर्शनामें अनेकांतवादका और समर्थन करनमें जितनी शक्ति लगाई है उतनी और आश्रयण है, और ऐसा मान कर ही वे अनेकांतवाद किसी भी दर्शनकं अनुगामी आचार्योने नहीं लगाई है। का खंडन करते थे। हम जब मीमांसक दर्शनके श्लोकवार्तिक आदि और सांख्य-योगदर्शनके परिणाम
अनेकान्तदृष्टिके मूल तत्त्व वादस्थापक प्राचीन ग्रन्थ देखते हैं तो निःसंदेह यह जब सारे जैन विचार और आचारकी नीव अनेजान पड़ता है कि उन ग्रन्थों में भी जैन ग्रन्थोंकी तरह, कान्तदृष्टि ही है तब यह पहले देखना चाहिये कि अनकांतदृष्टि-मूलक विचारणा है । अतएव शांत- अनेकान्तदृष्टि किन तत्त्वोंके आधार पर खड़ी की गई