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________________ मामशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनेकान्तवादकी मर्यादा अनेकान्तवादकी मर्यादा [लेखक–श्रीमान् पं० सुखलालजी] 2 जासह जैनधर्मका मूल मेंसे जैन विचार और जैनाचार क्या हैं ? कैसे हो सकते हैं ? इसे निश्चित करने या कसनेकी एक कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्मपन्थ हो उस- मात्र कसोटी अनेकांतदृष्टि है। की आधारभन उसके मूल प्रवर्तक पुरुषकी एक खास दृष्टि होती है। जैसे शंकराचार्य की अपने मतनिरूपणमें अनेकान्तका विकास और उसका श्रेय 'अद्वैन-दृष्टि' और भग- ...... __ जैनदर्शनका आधुवान बुद्धकी अपने धर्म इस लेखके लेखक पं० सुखलालाजी श्वेताम्बर निक मूल रूप भगवान पन्थ-प्रवर्तनमें 'मध्यम- जैनममाजके एक प्रसिद्ध बहुश्रुत विद्वान हैं । आपने रकी तपस्याका प्रतिपदा-मार्ग-दृष्टि ' दर्शन दर्शन स्त्रों तथा जैनसिद्धान्तोंका अच्छा अभ्यास ना फल है। इसलियेसामाखास दृष्टि है । जैन- किया है और कितने ही महत्वपर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। गत न्य रूपसे यही समझा दर्शन भारतीय दशनों वर्ष कुछ मासके लिये मुझे आपकं सत्संगमें रहनेका है कि जैनमें एक विशिष्ट दर्शन भी मोभाग्य प्राप्त हुआ है । आप साम्प्रदायिक कट्टरता दर्शनकी आधारभूत है और साथ ही एक मे रहित बड़े ही मिलनसार नथा उदारहृदय मजन है। अनकान्तदृष्टि भी भ. विशिष्ट धर्म-पन्थ भी और ब्रह्म वर्षकं साथ सादा जीवन व्यतीत करते हैं। महावीर के द्वारा ही है इसलिये उसके प्रवन्याय तथा व्याकरण की अनेक ऊँची उपाधियोंसे पहले पहल स्थिर की तक और प्रचारक मुख्य विभूपित होने पर भी आप कभी अपने नामके साथ गई या उद्भावित की पुरुषों की एक खास उनका उपयोग नहीं करते । कई वर्षसे महात्मा गांधी गई होगी । परन्तु विदृष्टि उसके मूनमें होनी जीके गुजगन-पुरातत्त्र-मंदिरमें आप एक ऊँचे पद पर चारके विकास-क्रमका चाहिये और वह है 'मम्मतितक' जे ओरपुरातन इतिहासका भी । वही दृष्टि 'अनबड़ी योग्यताकं माथ संपादन कर रहे हैं। यह मार्मिक चिंतन करनसे साफ कांतवाई' कहलाती है। लेख आपने मेरी प्रार्थनाको मान देते हुए लिख भेजा मालूम पड़जाता है कि तात्विक जैन-विचारणा है, जिसके लिये मैं श्रापका विशेष आभारी हूँ । लेख अनेकांतदृष्टिका मूल अथवा आचार प्राचार कितना गवेषणापूर्ण है उसे यहाँ न बतलाकर पाठकों i भगवान महावीरसे भी व्यवहार कुछ भी हो के विचार पर ही छोड़ा जाता है। श्राशा है पाठक इसे पुराना है। यह ठीक है वह सब अनेकान्तदृष्टि गरसे पढ़नकी कृपा करेंगे। ! कि जैनमाहित्यमें अनंके आधार पर किया -सम्पादक । कांतदृष्टिका जो स्वरूप जाता है और उसी के ....... आजकल व्यवस्थित आधार पर सारी विचार धारा चलती है । अथवा रूपसे और विकसित रूपसे मिलता है वह स्वरूप यों कहिये कि अनेक प्रकारके विचारों तथा आचारों- भ० महावीरके पूर्ववर्ती किसी जैन या जैनेतर
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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