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अनेकान्त
[वर्ष१, किरण १
பாபாபாபாபா
* धनिक-सम्बोधन *
चकरमें विलासप्रियताके
फँस मत भूलो अपना देश, प्रचुर विदेशी व्यवहारोंसे
करो न अपना देश विदेश । लोक दिखावेके कामोमें
होने दो नहिं शक्ति-विनाश, व्यर्थ व्ययोंको छोड़, लगो तुम
भारतका करनं सुविकाश ।।
(१)
(४) भारतके धनिको ! किस धुनमें भारतवर्ष तुम्हारा, तुम हो ___ पड़े हुए हो तुम बेकार ? भारत के सत्पुत्र उदार, अपने हित की खबर नहीं, फिर क्यों देश-विपत्ति न हरते
या नहीं समझते जग-व्यवहार? करते इसका बेड़ा पार ? अन्धकार कितना स्वदेशमें पश्चिम के धनिकों को देखो
छाया देखो आँख उघार, करते हैं वे क्या दिन रात, बिलबिलाट करते हैं कितने और करो जापान देशक सहते निशदिन कष्ट अपार ? धनिकों पर कुछ दृष्टि-निपात ।।
(२) कितने वस्त्रहीन फिरते हैं, लेकर उनसे सबक स्वधनका
क्षुत्पीड़ित हैं कितने हाय ! करो देश-न्नति-हित त्याग, धर्म-कर्म सब बेच दिया है दो प्रोत्साहन उन्हें जिन्हे है
कितनों न होकर असहाय !! देगोनिसे कल अनराग । जो भारत था गुरु देशों का,
शिल्पकला-विज्ञान सीखने महामान्य, सत्कर्म-प्रधान, युवकोंको भेजो परदेश, गौरवहीन हुआ वह, वनकर कला-मुशिक्षालय खुलवाकर, पराधीन, सहता अपमान । मेटो सब जनताके क्लेश ।।
(३) क्या यह दशा देख भारत की, कार्यकुशल विद्वानोंसे रख
तुम्हें न आता सोच विचार ? प्रेम, समझ उनका व्यवहार, देखा करो इसी विध क्या तुम उनके द्वारा करो देशमें
पड़े पड़े दुख-पारावार ! बहु-उपयोगी कार्य-प्रसार । धनिक हुए जिसके धनसे क्या भारत-हित संस्थाएँ खंलो __ योग्य न पूछो उसकी बात ! प्राम-प्राममें कर सुविचार, गोद पले जिसकी क्या उस पर करो सुलभ साधन वे जिनसे
देखोगे होते उत्पात !!
वैर-विरोध, पक्षपातादिक,
ईपा, घणा मकल दुष्कार रह न सकें भारतमे ऐसा
यत्न करा तुम बन समुदार । शिक्षाका विस्तार करो यों
रहे न अनपढ़ कोई शेप, सब पढ़ लिखकर चतुर वनें औ'
समझे हित-अनहित सविशेष||
करें देरा उत्थान सभी मिल,
फिर स्वराज्य मिलना क्या दूर? पैदा हों युगवीर' दे में,
तब क्यों रहे दशा दुख-पूर ? प्रवल उठे उन्नति-तरंग तर,
देखें सब भारत-उत्कर्ष, धुल जावे सब दोष-कालिमा
सुख-पूर्वक दिन को सहर्ष ।।
उन्नत हो अपना व्यापार
-'युगवीर'