SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] आधुनिक जैनसमाजकी सामाजिक परिस्थिति ४६९ जैन संघ के नेताओं ने इस विषय में बहुत कुछ निर्बल हो जावेगा। विचार किया, और इन क्षतियों का सुधार करनेके दूसरा पक्ष अपने को सुधारक पक्ष बतलाता है। लिय बहुत कुछ प्रयत्न किये, परन्तु अभी तक किसी ये लोग यथार्थ रीति से जैन धर्मानयायियों की संख्या भी व्यक्ति ने ज्ञातियों और उनके नियमों की ओर क- घटन के सच्चे कारण जान गये हैं । तो भी ये लोग कठोर दृष्टि पात करने का भी साहस नहीं किया है। झातिनियमों के विरुद्ध सीधी रीति से हल चल करयद्यपि वास्तवमें इन बन्धनों के लिये इस जागृति तथा ने का साहस नहीं करते हैं, किन्तु आड़े टेढ़े प्रयत्न शक्ति-विकाश के जमाने में जरा भी स्थान नहीं है। करते हैं अर्थात् नवीन पद्धतिके अनुसार शिक्षण देने तब फिर जैन संघ के अग्रेसरों ने कौन कौन से की सूचना देत और परिश्रम भी करते हैं। आगमोंका उपाय किये ? इसके उत्तर में यही कह सकते हैं कि अभ्यास करने का स्कालरों (Scholus को उत्तेजन भिन्न २ मति के भिन्न २ सचनायें करने वाले दो जदे देते है । भारत में ही नहीं किन्तु पाश्चात्य देशों में भी पक्ष हैं । इनमें का एक पक्ष रूढिपूजक पक्ष है, जो जैन साहित्य का प्रचार करते हैं । जैन धर्म के तस्व उपयक्त हानियों के सच्चे कारण नहीं जानता । परंत क्या है ? रूढियाँ क्या है ? आदि बातें बतलात है। एसा जानता है कि इस हानि का कारण यह है कि स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिये प्रयत्न करते हैं। आज कल परानी रूढियों तथा पराने मतों की ओर प्रत्येक स्थान में सर्व साधारण प्रेम एवं सहकार की लोग उपेक्षा करते हैं, और आधुनिक पाश्चात्य शिक्षण उद्घोषणा करते हैं । जैनों की शाखा तथा प्रतिशाखापाश्चात्य विचार एवं सिद्धान्तों के प्रति विशेष रुचि आमे ऐक्य स्थापन करनेका प्रयत्न करते हैं । यह बात दिखलाते हैं । इस लिये रूढिपजकों का कथन है कि निःसंदेह है कि उपर्युक्त प्रयत्न उचित हैं । कारण पुरानी रूढियों और मतों में कठोरतापूर्वक दृढ रहना यह है कि जितने अंशामें शिक्षा का प्रचार होगा उतने चाहिए । इतना ही नहीं, किंतु ऐस नियम भी जो किसी ही अंशों में शिक्षणप्रचार से यह बात निश्चित हो ज़माने में लाभदायक थे, परंतु इस समयके लिए हानि- जावेगी कि " उपयुक्त मानिनियमां के कारण समाज कारक हों, वे भी रखने चाहिये । उपयुक्त मान्यता स्वी- की कितनी अधोगति हुई है और अब उन नियमों का कार करने वाले लोगों का कथन है कि "अन्य धर्मियों नाश करना कितना आवश्यकीय कार्य है।" और के साथ सहकार-संबंध नहीं रखना चाहिये, यगंपयात्रा जितने अंशों में भिन्न२ शाखाओं तथा प्रतिशाखाओं नहीं करना चाहिए, गृहस्थ लोगों को भागमाभ्यास में परस्पर जितना संबंध बढ़ेगा उतने ही अंशों में सुनहीं करना चाहिये, और पाश्चात्य शिक्षण को स्थान धारक पक्ष शक्तिशाली बनंगा, और प्रत्येक को अपना नहीं देना चाहिये ।” संकुचितता एवं बद्धि-हीन रूढि अपना उत्तरदायित्व मालुम होगा। पजकता इस पक्ष के मुख्य चिन्ह हैं । यद्यपि इस पक्ष उपर्युक्त कथन के सिद्ध होने में अभी बहुत देर की भावना जैन समाज में अभी तक बहुत प्रचलित है। क्योंकि जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर यह है, तथापि ऐसा कह सकते हैं कि इस पक्ष के अनु- दो मुख्य शाखायें अभी तक अंतरीक्षजी, पावापुरजी यायी कम होते जाते हैं । प्रायः यह पक्ष थोड़े समय में राजगृही, सम्मेदशिखर, केशरियाजी और मक्सी आदि
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy