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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८,९,१० मैसूर के राजा-चामराजके सन्देशानुसार आदि आचार्य, जो दिगम्बर संप्रदायके स्तंभ समझ 'पद्मराज' पंडितने 'हयसारसमुच्चय' की रचना की थी जाते हैं और जिनके संस्कृत, प्राकृत ग्रंथोंका हमारे उ
और 'शान्तराज' पंडित 'मुम्माहि-कृष्णराज' का त्तर भारतमें बहुत प्रचार है, प्रायः कर्णाटक ही थे।" पाश्रित था।
'कर्णाटक कवि चरिते' के मूल लेखक, कणाइस प्रकार सामान्य रीतिसे जैन कवियोंके पोषक टक साहित्य के पूर्ण मर्मज्ञ, अच्छे रिसर्च स्कॉलर तथा प्रोत्साहक राजाओं का दिग्दर्शन कराया गया तथा कई भाषाओं के पण्डित, प्रसिद्ध विद्वान पार. है। विशद रीतिसे लिखने पर इस विषयकी एक स्व- नरसिंहाचार्य जी ने जैन कवियों के सम्बन्ध में तन्त्र पुस्तक ही तैयार हो सकती है। अस्तु । अपने जो शुभोद्गार प्रकट किये हैं वे पाठकोंके ग्वास
विद्वद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने कर्णाटक जैन क- तौर से जानने योग्य हैं और इस लिये उन्हें नीचे उपवियों के सम्बन्ध में अपने जो विचार प्रकट किये हैं। स्थित करके ही यह वक्तव्य समाप्त किया जायगा । वे उनमेंसे कुछ इस प्रकार हैं:-
उद्गार इस प्रकार हैं:"जैनधर्ममें मुख्य दो संप्रदाय हैं एक दिगम्बर और “जैनी ही कन्नड़ भाषा के आदि कवि हैं । आज दूसरा श्वेताम्बर । इनमें से दक्षिण और कर्णाटक में तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियाँ जैन केवल दिगम्बर मंप्रदायका ही अधिक प्राबल्य रहा है। कवियों की ही हैं । ग्रन्थरचना में जैनियों के प्राबल्य ऐसा मालूम होता है कि वहाँ श्वेताम्बर संप्रदायका का काल ही कन्नड़ साहित्य की उच्च स्थितिका काल प्रवेश ही नहीं हुआ। दक्षिण और कर्णाटक में जितना मानना होगा । प्राचीन जैन कवि ही कन्नड़ भाषा के
जैन साहित्य है, वह सब ही दिगम्बर जैन संप्रदाय के सौन्दर्य एवं कान्ति के विशेषतया कारणीभूत हैं । विद्वानोंकी रचना है। जहाँ तक हमको मालूम है श्वे- उन्होंने शुद्ध और गम्भीर शैली में प्रन्थ रच कर ग्रंथताम्बर संप्रदायका कोई भी प्रौढ़ विद्वान् उस ओर को रचना-कौशल को उन्नत प्रसाद पर पहुँचाया है। पंप, नहीं हुआ । इतिहासके पाठकों के लिये यह प्रश्न बहुत पोन्न, रन्न इनको कवियों में रत्नत्रय मानना उचित ही विचारणीय है।"
ही है । पोन्न ने राष्ट्रकूटगजा तृतीय कृष्ण से, रन्न ने __":स बातको सुन कर सब ही आश्चर्य करेंगे कि चालुक्य राजा तैलप से और जन्न न होयसल राजा दिगम्बर संप्रदाय के जितने प्रधान प्रधान प्राचार्य इस द्वितीय बल्लाल से 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि पाई थी। समय प्रसिद्ध हैं, वे प्रायः सब ही कर्ण टक देश के (द्वितीय) नागवर्म चालुक्य राजा(द्वितीय), जगदेकमल्ल निवासी थे और न केवल संस्कृत प्राकृत मागधीके ही के यहाँ, जन्न का पिता केशिराज का मातामह सुमनो प्रन्थकर्ता थे, जैसा कि उत्तर भारतके जैनी समझते बाण होयसल राजा (द्वितीय) नरसिंह के यहाँ कटहैं, किन्तु कनड़ीके भी प्रसिद्ध ग्रन्थकार थे। समन्त- कोपाध्याय था। अन्य कवियों ने भी १४ वीं शताब्दी भद्र, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, प्रकलंक- के अन्त तक सर्वश्लाघ्य चंपू काव्योंकी रचना की है। भट्ट, नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, भूतबलि, पुष्पदन्त, इनमें 'मधुर' ही अन्तिम कवि ज्ञात होता है। कन्नड वादीभसिंह, पुष्पदन्त (यशोधरचरित्रके कर्ता), श्रीपाल भाषाध्ययनके सहकारीभूत छन्द, अलङ्कार, व्याकरण,