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अनकान्त
वर्ष १, किरण ६, ७ घनी ऐसी मान्यता दिखलाई पड़ती है कि, प्रज्ञापना दिगम्बर साहित्य में अद्यावधिपर्यन्त देखनेमें आए हैं सूत्रके कर्ता श्यामाचार्यके गुरु हारित गोत्रीय 'स्वाति' वे सब ही दशवीं-ग्यारहवीं शताब्दीसे पीछे के हैं और ही तरवार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति हैं३ । ये दोनों उनका प्राचीन विश्वस्त आधार कोई भी नजर नहीं प्रकार की मान्यताएँ कोई प्रमाणभूत आधार न रख पड़ता ।खास विचारने जैसी बात तो यह है कि, पाँचवी कर पीछेसे प्रचलित हुई जान पड़ती हैं। क्योंकि दशवीं से नवमी शताब्दी तक होने वाले तत्त्वार्थस्त्रके प्रसिद्ध शताब्दीसे पहले के किसी भी विश्वस्त दिगम्बरीय ग्रंथ, और महान दिगम्बरीय व्याख्याकारोंने अपनी अपनी पट्टावली या शिलालेख आदिमें ऐसा उल्लेख देखनमें व्याख्यामें कहीं भी स्पष्टरूपसे तत्त्वार्थसूत्रको उमानहीं आता कि जिसमें उमास्वाति को तत्त्वार्थस्त्रका स्वातिका रचा हुआ नहीं कहा है के और न इन उमारचयिता कहा हो और उन्हीं उमास्वाति को कुन्दकुन्द स्वातिको गिम्बरीय, श्वेताम्बरीय या तटस्थ रूपमे हा का शिष्य भी कहा हो । इस मतलब वाले जो उल्लेख उल्लेखित किया है । जब कि श्वेताम्बरीय साहित्यम
आठवीं शताब्दीकं ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्रके वाचक उमा . ३ "आर्य महागिरेस्तु शिष्यो बहुल-बलिस्मही स्वाति-रचित होनेके विश्वस्त उल्लेख मिलते हैं और इन यमल-भ्रातरौ तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः स्वातिः तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव संभाव्यन्त । तच्छिण्यः श्या
प्रन्थकारों की दृष्टि में उमास्वाति श्वेताम्बरीय थे ऐमा माचार्यः प्रज्ञापनाकृन् श्रीवीगत् पटसप्तत्यधिकशतत्रय मालूम होता है। परन्तु १६वीं, ५७ वीं शताब्दीके 'धर्म (३७६) स्वर्गभाक।"
सागर' की तपागच्छकी पट्टावलीको यदि अलग कर ---धनमागीय लिखित पटावनी ।
दिया जाय तो किमी भी श्वेताम्बरीय ग्रंथ या पट्टावली ८ अवगाबल्गाल के जिन जिन शिलालेखों में उमास्वाति को आदिमें ऐसा निर्देश तक नहीं पाया जाता कि, तत्त्वार्थतस्वार्थरचयिता और कुन्दकुन्द का शिष्य कहा है वे सभी शिलालेख विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दी के बाद के हैं । दखो, माणिकचन्द
स्त्र-प्रणेता वाचक उमास्वाति श्यामाचार्यकं गुरु थे। अन्यमाला द्वारा प्रकाशित जनशिलालेखपग्रह' लेख ने०४०, ४२ वाचक उमास्वाति की खद को रची हुई, अपने ४३, ४७, ५० और १०८।
कुल तथा गुरुपरम्परा को दर्शाने वाली, लेशमात्र ___नम्दिसंघकी पविली भी बहुत ही अपूर्ण तथा ऐतिहासिक संदेह में रहित तत्वार्थसत्र की प्रशस्ति के आज तक तथ्यविहीन होने में उसके ऊपर पूरा आधार नहीं रखा जा सकता,
विद्यमान होते हुए भी इतनी भ्रांति कैसे प्रचलित हुई ऐसा फं० जुगलकिशोर जी ने अपनी परीक्षा में सिद्ध किया है । देखो, 'स्वानी समन्तभद्र' पृष्ट १४४ से । इससे इस पट्टावनी तथा * श्लोकवार्तिक' में विद्यानन्द ने उमास्वातिका दूसरे 'गृद्धइस जैसी दसती पट्टावलियों में भी मिलने वाले उलेखों को दूसरे पिच्छाचार्य' नाम से उल्लेख किया है और उन्हें तत्त्वार्थसूत्रका विश्वस्त प्रमाणों के आधार विना ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता। कर्ता सूचित किया है । यथा
"तत्त्वार्थशास्त्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । "एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण वन्दे गणीन्द्रसंजान मुमास्वामिमुनीश्वरम् ।।"
व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे ।" यह तथा इसी भाशय के इससे गद्य पद्य मय दिगम्बरीय भव
-सम्पादक तरण किसी भी विश्वस्त तथा प्राचीन आधार के लिये हुए नहीं हैं, (५) विशेष खुलासे के लिये देखो 'परिशिष्ट' । इससे इन्हें भी अन्तिम भाधार के तौर पर नहीं रक्खा जा सकता। (६) देखो, टिप्पण (फुटनोट) २१ वा ।
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