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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति [ लेखक-श्रीमान पं० सुखलाल जी ] वंश जैन शाग्वा का एक शाम है; इसमे इसके इतिहासम विद्यावंश का इतिहास पाता है। न्म-वंश और विद्या-वंश ऐस नत्त्वााधिगम शास्त्रके प्रणेता जैन मम्प्रदायक वंश दो प्रकार का है । जब सभी फिरकोंमें पहलेमे आज पर्यन्त एक रूपमे मान किसीके जन्म का इतिहास जाते हैं । दिगम्बर उन्हें अपनी शाखामें और श्वेताम्बर विचारना होता है तब उसके अपनी शाखामें मानते हुए चले आते हैं। दिगम्बर पर. साथ रक्त (रुधिर)का सम्ब- म्परामें ये 'उमास्वामी' और 'उमाम्बाति' इन नामोंमें न्ध रखने वाले उसके पिता, प्रसिद्ध है; जब कि श्वेताम्बर परम्पगमें केवल 'उमापितामह, प्रपितामह, पुत्र, स्वाति' नाम ही प्रसिद्ध है। इस समय मभी दिगम्बर पौत्र, प्रपौत्र आदि परम्पराका विचार करना पड़ता है, तन्वार्थशामा-प्रणेता उमाम्वातिको कुन्दकुन्द के शिष्य और जब किसीके विद्या-शास्त्रका इतिहास जानना होना रूपमे मानने में एकमन हैं। और श्वेताम्बरों में थोड़ी है तब उस शास्त्र-रचयिताके साथ विद्याका सम्बन्ध दावा, नामी ममन्तभद' पृ०१४४ मे भागे तथा सार्थरखने वाले गम,प्रगुरु तथा शिष्य, प्रशिष्य आदि गरु- मिदि राजवार्तिक मादि प्रथोंके मारकी माधुनिक प्रस्तावनाएँ । शिष्य-भाव-चाली परम्पराका विचार करना होता है। मूल मर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिकके जो 'तत्त्वार्थ यह भारतीय दार्शनिक विद्या की मरकरणा प्रकाशित हए हैं उनकी प्रस्तावनामों में रोमा नहीं पाया जाता, १ ये दोनों वंश आर्य परम्परा मौर मार्य माहित्यमें हजागं और न 'म्वामी समन्नभद्र' इतिहास में उमास्वाति की कुन्दकुन्द पास प्रसिद्ध हैं। 'जन्मवश' योनिसम्बंधकी प्रधानताको लिये हर कामाक्षात शिष्य प्रतिपादन किया गया है। हा, इतना मचित गहस्थाश्रम-सापेक्ष है और 'विद्यावश' विद्यासम्बन्ध की प्रधानताको किया है कि नन्दिमयकी पट्टावली (जिसकी प्रामाणिक्ता पर बहतकुछ लिये हुए गुरुपरम्परा-सापेक्ष है। इन दोन वशों का उल्लेख पागिा आपत्ति की गई है) मे तो "ऐसा मालूम पड़ता है मानों उमास्वाति नीय-व्याकरणसूत्रमें तो स्पष्ट ही है। यथा-- कुन्दकुन्दके शिष्यही थे। परन्तु श्रवणवल्गाल के शिलालेग्नमें उन "विद्या-योनि-सम्बन्धेभ्यो वन" ४, ३,७७ कुन्दकुन्दका शिष्य सचित नहीं किया, बल्कि 'सदम्बये' और -पाणिनीय सूत्र। 'तदीयवंशे शब्दोंके द्वारा कुन्दकुन्दका 'वंशज' प्रकट किया है।" इससे इन दो शोंकी स्पष्ट कल्पना पाणिनीयसे भी बहुत ही इससे मालम होता है कि लेखक महोदय को इस उसके करने में कुछ गलती हुई है। --सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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