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________________ ३८४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,५ किसी काम का औचित्य हम प्राचीनतासे ठहराते हैं। नहीं यह मैं पहले ही दिखा चका हूँ। राणा प्रताप, जो रिवाज, जो रीत-रस्म, जो नियम पहले से चले झाँसी की राणी, चित्तौड़ की राणी पद्मिनी-येही भारहे हैं, वे ठीक ही हैं, उनमें हमें दोष दीखने पर वास्तविक सुखी जीव थे। पर जिनको संसार में भी उनका विरोध करने की शक्ति नहीं। हमें अपने साधारण रूप से सुख कहा जाता है, उन्हें ही लान उत्तरदायित्व पर, अपने बल और साहस पर , अपने मार कर इन्होंने असली सुख पाया था। विवेक के अनुसार, किसी नये काम को शुरू करने की यवक कोई ऐसा काम चाहते हैं, जिसमें उन्हें आज हिम्मत नहीं। त्रियाँ दुःखी हैं, पर यह तो सदा अधिक दिन परीक्षा में न पड़ना पड़े। वे चाहते हैं से ही होता आया है, 'अछूत' दुःख पाता है, यह तो किसी सेनापति की रण-तुरही का नाद, जिसके सुनते सृष्टि के आदि से चला आता है; बाल-विवाह हिन्दू. ही जोश में मतवाले होकर वे घर छोड़-छोड़ कर धर्म का सनातन रूप है। इन सब को हम कैसे बदल निकल पड़ें और क्षणभर में रणभूमि में मार-काट सकते हैं ? इसी प्रकार जात-पात के दोष, विवाह के मचादें । या तो मर ही मिटें या मार कर ही श्रावें । वे दोष, ब्राह्मणों का निरंकुश अधिकार, आदि कितने ही ऐसा कोई काम नहीं चाहते कि जिसमें उन्हें प्रलोभनों सामाजिक दोष हम आँख मूंद कर चुपचाप सहते में परने का अवसर मिल जाय । वे अपने सामने दो माते हैं। किसानोंका कष्ट, गरीबोंकी भख, राजनैतिक प्रकारके भोजन-राजसी और गरीबीका, दो प्रकारक असमानता से होने वाले पैशाचिक अत्याचार भी हम मकान-महल और झोंपड़ी,दो प्रकारके वस्त्र-रेशम कायर बनकर उसी प्रकार सह लेते हैं । हममें किसीभी या मलमल ओर मोटी खादी, दो प्रकार के जीवनभत्याचार के विरुद्ध सिर उठानेकी शक्ति नहीं रही। गार्हस्थ्य और ब्रह्मचर्य नहीं देखना चाहते! उन्हें डर है किन्तु जब कुछ इने-गिने लोग हमारी दशा का कि वे इस प्रलोभनसे बच नहीं सकेंगे, वे ऐश-आराम परिचय कराते हैं, हमारी आँख में अंगली डालकर, के जीवनकी ओर झक ही जायेंगे।न्यायका मागे अपने उन्हें खोलकर, हमें अपने चारों ओर के भीषण दृश्य आप पसन्द करना उनके लिए कठिन हो पड़ेगा। देखनेको विवश करते हैं, तो अपने स्वभावके अनुसार इस प्रकार हम देखते हैं कि आज हमारे युवकहमारा हृदय आग हो जाता है, हम भड़क उठते है और यवतियाँ त्यागसे घबराते हैं। ऐसा काम चाहते हैं जो चारों ओर एक महान क्रान्तिकी महान आवश्यकताका कुछ देरके लिए उनके हृदयको जोशसे भरदे, और तब अनुभव करके जोरसे चिल्ला उठते हैं 'क्रान्ति की जय'! वे प्राण भी देनेको तैयार हो जायेंगे, पर सदा के लिए पर इस जोर की चिल्लाहट में हमारा सारा आवेश अपनी वासनामों को दमन फरके जीवन बिताना उन्हें काम पा जाता है, हमारे हृदय की आग एक बार पसन्द नहीं, यह उन्हें अशक्य मालूम पड़ता है। जोर से जल कर ठंडी पड़ जाती है, दीपक अन्तिम परन्त यह लडाई तो ऐसी नहीं, जो प्राण दे देने बार तेज हो कर बझ जाता है ! जब हम देखते हैं कि या लेलेनस जोती जा सके । हमें किसी बाहरी शत्रुको इन अत्याचारोंसे बचने के लिए जो क्रान्ति आवश्यक नहीं अपने भीतरी शत्र को जीनना है। यह बात है उसके लिए हमें अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं । यद्यपि कुछ बेदव-सी जान पड़ती है, पर है यही सबसे अपने सुखों और अपनी प्यारी कामनाओंको बलिवेदी , ठीक बात । इतिहास साक्षी है कि जिस तरहकी लड़ापर चढ़ाना होगा,तब हमारा कायर हृदय बैठ जाता है इयाँ सष्टिके आदि काल से हम लड़ते आये हैं, उनसे बह इस सम्बन्धमें विचार करना भी छोड़ देता है। . संसार में दुःख की, अत्याचार की कोई कमी नहीं हुई पर इस प्रकार हम इन छोटे मोटे-सुखोंको भले ही है। अब हमें दूसरे ही प्रकार की लड़ाई लड़नी है। पालें, किन्तु वास्तविक सुख हमें कदापि नहीं मिल सकता । सुख तो बीरता से ही मिलता है'कायरता से
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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