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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ भगवान महावीर या उनके सच्चे शिष्योंने वनवास और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय अस्मिता (अहंकृति)स्वीकार किया हो, नग्नत्व धारण किया हो, गुफा पसं- जैसी कोई वस्तु ही न थी ? क्या उस वक्त के राज्यप की हो, घर तथा परिवारका त्याग किया हो, धन- कर्ता मात्र वीतराग दृष्टि से और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सम्पत्तिकी तरफ बैपर्वाही दिखलाई हो, ये सब प्रान्त- की भावनासे राज्य करते थे ? यदि इन सब प्रश्नोंका रिक विकासमें से उत्पन्न होकर जरा भी विरुद्ध मालुम उत्तर यही हो कि जैसे साधारण कुटुम्बी गृहस्थ जैनहीं होते । परन्तु गले तक भोगतष्णामें डबे हुए तथा नत्व धारण करने के साथ अपने साधारण गृहव्यवसच्चे जैनत्वकी साधनाके लिये जरा भी सहनशीलत हार चला सकता है तो प्रतिष्ठित तथा वैभवशाली भरखनेवाले तथा उदारदृष्टि-रहित मनुष्य जब घरबार गृहस्थ भी इसी प्रकार जैनत्वके साथ अपनी प्रतिष्ठाको छोर जंगल में दौड़ें, गुफावास स्वीकार करें, मा-बाप सँभाल सकता है और इसी न्यायसे राजा तथा राजया आश्रितोंकी जवाबदारी फेंक दें तब तो उनका कर्मचारी भी अपने कार्यक्षेत्रमें रहते हुए सचा जैनत्व, जीवन विसंवादी होवे ही और पीछे बदलते हुए नये पाल सकते हैं, तब आजकी राजप्रकरणी समस्या 'सयोगीकै साथं नया जीवन घडनकी प्रशक्तिके (लीक- का उत्तर भी यही है । अर्थात् राष्ट्रीयता और राजवृत्तिके) कारण उनके जीवनमें विरोध मालम पड़े, यह प्रकरण के साथ साचे जैनत्व का ( यदि हृदयमें प्रकटा स्पष्ट है।' :...- - -
हो तो) कुछ भी विरोध नहीं । निःसन्देह यहाँ त्यागी ' 'सष्ट्रीय क्षेत्र और राजप्रकरणमें जैनोंके भाग लेने वर्गमें गिने जाने वाले जैनकी बात विचारनी बाकी मान लेने विषयक पहले प्रश्न के सम्बन्धमें जानना रहती है । त्यागीवर्गका राष्ट्रीय क्षेत्र और राजप्रकरण
माहिये कि जैनत्वं त्यागी और गृहस्थ ऐसे दो वर्गों में के साथ सम्बंध घटित नहीं हो सकता ऐसी कल्पना विभाजित है । गृहस्थ जैनत्व यदि राजकर्ताओं तथा उत्पन्न होनेका कारण यह है कि राष्ट्रीय प्रवृत्तिमें शु
राज्यकै मन्त्री, सनाधिपति वगैरह अमलदारोंमें खुद द्धत्व जैसा तस्व ही नहीं और राजप्रकरण भी सम*भगवान महावीर के समयमें ही उत्पन्न हुआ था और ‘भाव-वाला हो नहीं सकता ऐसी मान्यता रूढ हो गई उसके बारके २३०० वर्ष तक राजाओं तथा राज्यके है। परन्तु अनुभव हमको बतलाता है कि सभी हकीमुख्य अंमलदारों ( कर्मचारियों) में जैनत्व लानका क्रत ( यथार्थ वस्तुस्थिति ) ऐसी नहीं। यदि प्रवृत्ति 'अथवा चले आते जैनत्वको स्थिर रखनका भगीरथ करनेवाला स्वयं शुद्ध है वह हरेक जगह शुद्धिको ला
प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया था तो फिर आज राष्ट्रीयता सकता तथा सुरक्षित रख सकता है और यदि वह खुद 'और जैनत्वके मध्यमें विरोध किस लिये दिखाई देता ही शुद्ध न हो तो त्यागीवर्गमें रहतेहुए भी सदा मैल तथा है ? क्या ये पुराने जमानेके राजा, राजकर्मचारी भ्रमणामें पड़ा रहता है । हमारे त्यागी माने जानेवाले
और उमका राजप्रकरण यह सब कुछ मनुष्यातीत जैनोंको खटपट, प्रपंच और अशुद्धिमें लिपटा हुआ 'या लोकोत्तर भूमि का था ? क्या उसमें राजखटपट, क्या नहीं देखते ? यदि तटस्थ जैसे बड़े त्यागी वर्ग में 'प्रपंच, या वासनाओंको जरा भी स्थान नहीं था या एकाध व्यक्ति सचमुच जैन मिलनेका संभव हो तो उस बचके राजप्रकरणमें उस वक्तकी भावना आधुनिक राष्ट्रीय प्रवृत्ति और राजकीय क्षेत्र में बने