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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा वाले बड़े वर्गमें उससे अधिक श्रेष्ट गुणजेनत्वको योग्य जान पड़ा था वह तो एकान्तिक त्याग ही था, धारण करने वाली अनेक व्यक्तियों क्या नहीं मिलती? परन्तु ऐसे त्यागके इच्छुकों तक सब एकाएक ऐसी जो जन्मसे भी जैन हैं । फिर त्यागी माने जानेवाले भूमिका पर पहुँच नहीं सकते। इस लोकमानससे जैनवर्गमें भी राष्ट्रीयता और राजकीय क्षेत्रमें समयो- भगवान अनभिज्ञ न थे, इसी लिये वे उम्मीदवार के चित भाग लेने के उदाहरण जैन साधुसंघके इतिहासमें कमती या बढ़ती त्यागमें सम्मत होकर "मा पहिक्या कमती हैं ? फेर हो तो वह इतना ही है कि उस बंधकुणह"- 'विलम्ब मत कर' ऐसा कह कर वक्तकी भाग लेनेकी प्रवृत्तिमें साम्प्रदायिक भावना सम्मत होते गये । और बाकी की भोगवृत्ति तथा और नैतिक भावना साथ ही काम करती थीं; जब कि सामाजिक मर्यादाओंका नियमन करने वाले शाख आज साम्प्रदायिक भावना जरा भी कार्यसाधक या उस वक्त भी थे और आगे भी रचे जायेंगे । 'स्मृति' उपयोगी हो सके ऐसा नहीं। इससे यदि नैतिक भावना जैसे लौकिक शास्त्र लोग आज तक घड़ते पाए हैं
और अर्पण वृत्ति हृदयमें हो (जिसका शुद्ध जैनत्वके और आगे भी घड़ेंगे। देश-कालानसार लोग अपनी साथ संपूर्ण मेल है ) तो गृहस्थ या त्यागी किसी भी भोगमर्यादाके लिये नये नियम-नये व्यवहार घड़ेंगे, जैनको, जैनत्वको जरा भी बाधा न पाए तथा उलटा पुरानोमें फेरफार करेंगे और बहुतोंको फेंक भी देंगे। अधिक पोषण मिले इस रीतिसे, काम करनेका राष्ट्रीय इन लौकिक स्मृतियोमें भगवान पड़े ही नहीं । भगवान तथा राजकीय क्षेत्रमें पूर्ण अवकाश है । घर तथा का ध्रुव सिद्धान्त त्यागका है । लौकिक नियमोंका व्यापारके क्षेत्रकी अपेक्षा राष्ट्र और राजकीयक्षेत्र बड़ा चक्र उसके आस-पास उत्पाद व्ययकी तरह ध्रुव है, यह बात ठीक; परन्तु विश्वकी साथ अपना मेल सिद्धान्तको बाधा न पाए ऐसी रीतिसे फिरा करे, होनेका दावा करने वाले जैनधर्मके लिये तो राष्ट्र और इतना ही देखना रहता है । इसी कारणसे जब कुलराजकीय क्षेत्र यह भी एक घर-जैसा ही छोटासा क्षेत्र धर्म पालनेवालेके तौर पर जैनसमाज व्यवस्थित हुमा है। उलटा आज तो इस क्षेत्रमें ऐसे कार्य शामिल हो और फैलता गया तब उसने लौकिक नियमोंवाले गये हैं जिनका अधिकसे अधिक मेल जैनत्व (समभाव भोग और सामाजिक मर्यादाका प्रतिपादन करने वाले
और सत्यदृष्टि ) के साथ ही है। मुख्य बात तो यह अनेक शास्त्र रचे। जिस न्यायने भगवान के पीछे हजार है कि किसी कार्य अथवा क्षेत्रकं साथ जैनत्वका ता. वर्षों में समाजको जीना रक्खा वही न्याय समाजको दात्म्य संबंध नहीं । कार्य और क्षेत्र तो चाहे जो हो जीता रहने के लिये हाथ ऊँचा करके कहना है कि 'तु परंतु यदि जैनत्व की दृष्टि रखकर उसमें प्रवृत्ति होतो सावधान हो, अपने निकट विस्तारको प्राप्त हुई परिवह सब शुद्ध ही होगा।
स्थितिको देख और फिर समयानुसारिणी स्मतियाँ दूसरा प्रश्न विवाह-प्रथा और जातपाँस आदिक रच । तू इतना ध्यानमें रखना कि त्याग ही सबा लक्ष्य सम्बंध-विषयका है । इस विषय में जानना चाहिये कि है परंतु साथमें यह भी ध्यानमें रखना कि त्यागजैनत्वका प्रस्थान एकान्त ,त्यागवृत्तिमेंसे हुआ है। विना त्यागका ढींगत करंगा तो जरूर मरंमा । और भगवान महावीरको जो कुछ अपनी साधना से देने अपनी भोगमर्यादाको अनुकूल पड़े ऐसी रीतिसे