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________________ १७९ माष, वीर नि० सं०२४५६] वियुवर इन्हें किसी तरह सता सकू। और फिर कुछ ऐसी बात उसके दमन और शमनके लिये कुछ सेनाका अध्यक्ष घटित हो जाय कि मुझे उनके सामने हाथ जोड़ कर बना कर उन्हें भेजा जाता । इम सैनिक-कार्यमें भी खड़ा होना पड़ जाय । मैं उन पर आपत्तियां लाऊं, आशामे अधिक वे यशस्वी हग । अब भारी-भारी वह उन आपत्तियों को तोड़ फोड़ कर फेंक दें, और यद्धों में भी जोग्यमकी जिम्मेदारी उन्हें मौंपी जाने मुझे शरणमें ले लें । कुछ ऐसे ही अनर्थ और द्विविध लगी। ऐसे युद्धोमें भी, उन्होंने अपने पूर्व-यश के अभावको लेकर वह बेचैन हो उठा । इस अपनी द्विमुखी नुसार ही कत्ति उपार्जित की। यवा, होते-होते प्रतिष्ठा, भावनाकी कैसे तुष्टि प्राप्त करे-कुछ समझ नहीं पड़ता। सौंदर्य, क्षमता, सर्वप्रियता और गंभीरता में उनके उस भावनाके किसी एक विभाव ( Aspeel ) को ममकक्ष गिना जाने वाला दृसग न था । कामदेव अपने तर्क और आवेशसे पुष्ट करके और बढ़ाकर एक के समान रूप वाले, और वृहस्पतिके समान मंधानिश्चित मत पर आने का वह प्रयत्न करने लगा। सम्पन्न, कुबेग्क गमान अक्षय-धन-सम्पन्न, जलड़की यत्न करके वह ऐसी-ऐसी बातें सोचने लगा जिमसे तरह गम्भीर, गरु के समान विज्ञ, श्रीर सयका उस भावका सात्मक विभाव, उत्कृष्ट नहीं निकृष्ट तरह कांतिवान् जम्बुकुमार-सबकी ईष्या औरसबकी विभाव, अधिकाधिक पुष्ट हो ।सोचा-वे तो ऐश्वर्य- श्रद्धाके पात्र थे । ........ के युद्धम विजयी होने पर शाली हैं, अवश्य उनके यहाँ अपरिमेय द्रव्य होगा, पुरवामियांने जिम उल्लासमं उनका सम्राटयाग्य स्वाशरीर उनका कितना दृढ़ और बलवान् दीख पड़ता गन किया, हम देख ही चुके है। था; उनका परिधेय ही कितना अमूल्य था, फिर हार किन्तु यद्धोम, कार्तिस, यश-वैभवसं, और इमी और मुकुट आदि अलग; फिर उनका सब आतंक तरह की शेष और परिमहस, इनका मन जैसे अलग खाते, और आदर करते दीख पड़ते हैं। तारीफ़ तो रहता था। मानों उकताया रहता था। इन सबके बीच मेरी तब है जब मैं ऐसे व्यक्तिका कुछ बिगाड़ सकू। रहते थे, पर जलमें रहतं कमल-पत्रकी तरह, उनसे तब पता चलेगा मेरे मन में कितना बल है, बाहुओमें अलग, स्वतन्त्र रहते थे । आप और हमारी तरह कितनी क्षमता है,और मस्तिष्क में कितना चातुर्य है। अपनी वासनाओं, ममताओ, और स्मृतियाका इस ते किया-उनसे पहिले परिचय पाऊँगा, फिर उन्हीं के चीज या उस चीज में फँमा कर इस भ्रांति-लोक में, यहाँ चोरी करूँगा। कनखजरं की तरह अपनं सारं हाथ-पाँव गढ़ा कर भूले नहीं रहते थे; वह मानों सदा किसी दूसरे ही श्री० जम्बकुमारका कुछ परिचय पालें। लोक में रहते थे, इस हमारे जगत से जो जाहिरा धर्मरत श्रेष्टिवर श्रहंदासके वे पत्र हैं। शैशव से सम्बंध रखतं दीख पड़ते थे तो वह मानों केवल हमाही अलौकिक मेधा और प्रतिभाका परिचय देते आ रहे ग कुछ हित-साधन करने के कारण । हैं । बालावस्थामें ही कुछ ऐसे भक्त कृत्य उन्होंने किन्तु दुनिया अपने से निर्लिप्त किसी व्यक्तिको सम्पन्न किये कि लोग चकित रह गये। उनकी ख्याति देख कर चप नहीं रह सकती । पहले नो अपनी श्रद्धा दूर दूर फैल गई। राज सभामें उन्हें सम्मान मिलने और भक्ति के धागों से ही उसे बांधनका यत्न करती लगा। होते-होते कैशोर वय उन्होंने पाया, और तभी, है। और फिर धन, दारा, पुत्र-पुत्रियों और कुटुम्बियों उनकी योग्यता और शौर्यसे विस्मित और आनंदित आदिके और तरह के बन्धन हैं। होकर, उन्हें बड़ी जोखम और दायित्वके काम सौंपे इन स्पहणीय, यद्यपि विरागी कुमारको अपनीजाने लगे । उनकी मंत्रणा मौत मौके ली जाती। अपनी कन्याओंके लिये प्राप्त करनेको बहुनसे पिता भारी संकटके समय उन्हें भी अवश्य याद किया लालायित हो गये। और कुमारके पिता श्रष्ठि आईजाता । साम्राज्यकी सीमामें जहाँ-तहाँ उत्पात होता तो रास और माता श्रीजिनमती को पद्मश्री, कनकनी, (६)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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