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________________ {૭૮ EN विद्युच्चर अनेकान्त twitte (8) tara | एक दिन उसी राजगृही नगरी में विद्युच्चरको बड़ी धूमधाम दीख पड़ी । तोरण, बंदनवार, फूलमालाएँ और तरह-तरह के श्रृंगार पहिन कर मानों यह सुरनगरी अपना सौंदर्य सजाने बैठी है । सभी अंग-प्रह, द्वार, हाट, बाट - श्रभूषित, अलंकृत होकर मानों खिलकर दिखाने में एक दूसरेसे स्पर्धा कर रहे है । अद्भुत चहल-पहल है । आल्हाद का उफान सा आगया है; मानों नगरीका आज सुहाग सम्पन्न हुआ है, और वह उसीका जय-समारोह मना रही है । मानों किसीकी प्रतीक्षा में, उसका स्वागत और सत्कार करनेको, उसे अपने हृदयासन पर अधिष्ठित करनेको, प्रफुल, आनन्द-मग्न, उसकी राहमें अपने पाँवड़े बिछा कर बाट देख रही है । अलौकिक पुरुष कौन है ? - ANAN वह कौन है ? - यही जानने को उत्सुक होकर विद्युकचर एक सम्पन्न सद्गृहस्थ बनकर, समारोह में पागल होते हुए पुरवासियोंके बीच आया है । वह इससे पूछता है वह प्रश्न पर विस्मय करके हँस देता है। उससे पूछता है - वह जवाब नहीं देता, चला जाता है, मानों प्रश्नकर्त्ता की अक्षम्य जानकारी पर विस्मित ही नहीं क्षुब्ध भी है । फिर वह तीसरे से पूछता है – उससे भी उसे उत्तर नहीं मिलता, उपेक्षा मिलती है। सबसे पूछता है - सब उस पर हँस देते हैं। अब वह अपने हृदय की सारी भूख से जान लेना चाहता है-वह अपरिमित भाग्यशाली कौन है ? ले०—श्री जैनेन्द्रकुमार देखो, विद्युच्चर, वे सब लोग उत्कण्ठित होकर किधर को देखने लगे और भागने लगे ! उसने ध्यान दियादूरसे वाद्यका रव और भीड़का रव जैसे उसीकी भोर ल रहा है। लोग सब उसी रवकी ओर भागे जा रहे हैं। वह वहीं प्रतीक्षा में तैर गया । [वर्ष १, किरण ३ Caras? जुलूस श्राया। पहले ऊँटों पर जय ध्वज फैराते हुए चारण आये । फिर तुरही वाले । उसके बाद पदातिसेना । फिर अश्वारोही । श्रनंतर हाथियों पर राज्य के श्रमात्यवर्गकी सवारी आई। उनके बीच में ही, विद्युच्चरने देखा एक असाधारण डील के गजराज पर, जिस पर सोनेके तारोंसे बुनी मूल कूलर ही है, और ठोस सोनेकी अम्बारी कसी है, और जिस हाथीका गंडभाग, निरंतर, रास्ते भर फूलोंकी वर्षा होने के कारण, फूलोंसे लक्ष्य है, दो दीप्तिमान पुरुष बैठे हैं। एक राजा श्रेणिक ही हैं, उनके सिर पर राजमुकुट जो है । दूसरे... ? - तभी कर्णभेदी और गगनभेदी जयघोष गूंज गया'स्वामी जम्बुकुमार की जय' ! तो समझे, विद्युच्चर, ये दूसरे अलौकिक से दीखने वाले व्यक्ति, जिनकी आंखों की दीप्ति कंठमें पड़ी माणिक्य मालाकी दीप्ति से कहीं. सतेज और असह्य है, चेहरे से जिनके भोज मानों चुआ पड़ता है, वही वज्रसंहननी जम्बुकुमार हैं। उन्हीं के वरद दर्शन की प्रतीक्षा में अलंकृता राजगृही आँख बिछाये बाट जोहती थी। (५) स्वामी के दर्शन के बाद विद्युच्चर के मनमें एक बेचैनी उठी। वह उस बेचैनीको समझन सका । अकस्मात ही प्रकाशका दर्शन, आँखोंको चौंधियाता हुआ जब भीतर तक पहुँचता है तो जैसे उस प्रकाशके प्रति एक मोह और एक विद्वेष सा पैदा हो आता है, उसी तरह स्वामी के प्रति ममता और श्लाघांका भाव भी विद्युच्चरमें उदित हुआ, साथ ही एक प्रकारके रोषकी भावनाका भी उद्रेक हो आया। इस अद्भुत भावका विश्लेषण व्यक्ति कैसे कर सके ? विद्युच्चरके जी में आता है,
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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