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________________ भनेकान्त वर्ष १, किरण ३ विनयश्री और रूपभी इन चार कन्याओं के पितामों कुमारको चले जाना पड़ा । पिता की रक्षा हुई। को वाग्दान देना ही पड़ा। ये कन्याएँ अत्यन्त रूपवती, वह मन ही मन मुनिराजके ऋणी हुए। किंतु कुमारके कुलवती और समृद्धिवती थीं । सगाई होगई। संबंधमें उनकी शंका ढीली न हुई। किंतु होनहार अपनी सिद्धि के लिये क्या क्या योजनाएँ फैला रखती है, इसका किसको पता रह एक हीरे-मोतीके व्यापारी कुमारसे मिलने आये सकता है । कुमारको मानों विधि के विधानवश एक हैं। उनको अभिवादनपूर्वक महलोंमें ले जाया गया। मुनिराज के दर्शन हो गये । दर्शन से, अब तक की कई कमरे और सहन पार करने पर एक कमरा आया। संचित उकताहट, वह अनिश्चित वितृष्णा जो अब-तक राजोचित साज-सज्जा से वह सजा है । कुमार वहीं इनके मनको कुरेदती रहती थी, अब एक दम सुस्पष्ट एक आसन पर विराजमान हैं। कुमारने उठकर स्वा और सुनिश्चित चाह बन कर सामने श्रागई। कुमारने गत किया और अपने से ऊँचा आसन प्रदान कर मुनिराजसे दीक्षा लेने की प्रार्थना की। कुशल-वृत्त पूछा । श्रागत सज्जनने निवेदन किया- मुनिराज ने, साथ आये पिता की आकृत्तिके भाव "मैं सेवामें कुछ मणि-माणिक लाया हूँ। सुना, को ताड़ा, और कुमारको तनिक धैर्य रखनेका आदेश श्राप यहाँ सज्जनोंको अपनाने वाले और रत्नोंकेपारखी किया। हैं । इससे दर्शनोंकी चाह हुई और ा उपस्थित हुआ। ऐसी बात में कुमार आसानी से धीरज नहीं रख कुमार-बहुत शुभ । किंतु, मैं तो रत्नों का क्रय भी सकते नहीं करता, विक्रय भी नहीं करता । मैं दूंगा तो "स्वामिन् , एक क्षण भी, मेरा मन इन व्यर्थताओं यों ही दूंगा, और लूँगा तो तभी जब उन्हें शिष्टता में बेंधा रहना नहीं चाहता । मैंने बहुत कुछ सोचा है, की रक्षाके लिये लेना ही पड़ जायगा। इस संबं और बहुत कुछ किया है । अब देखता हूँ, वह कुछ धमें आप पिताजी से मिलें तो उत्तम हो, संभव है नहींके बराबर है । जब तक आपा नहीं जाना, तब तक वह आपके कुछ रत्न खरीदना चाहें। सब करना और सब सोचना निष्फल है।" व्यापारी-किंतु आपको रत्नोंसे घृणा तो नहीं मालूम किंतु मुनिराज अपने पथके कांटे जानते हैं, और होती । आपके शरीर पर अब भी लक्षाधिक मूकुमारको यदि उस पथ पर चलने की चाह हुई है, तो ल्यवान माणिक वह इसकी काफी परीक्षा कर लेना चाहते हैं कि वह कु०-ठीक है । द्वेष नहीं है, इसी से राग है यह समसाधारण लाभ ही तो नहीं है, जो पहिले कांटे पर ही मना भूल होगा। मुझे उनसे ममता भी ठीक वैसे हार मान जाय । बोले ही नहीं है, जैसे घृणा नहीं है। ____ "कुमार, अधीरता शुभ लक्षण नहीं है। अभी मेरा व्या-किंतु यह आपका भावसर्वथा ही उपादेय नहीं। भादेश मानों । कुटुम्बियों की, अपने उद्देश्यसे सहमति कुछ पदार्थ घण्य होते हैं, कुछ आदरणीय ही । प्राप्त करो। उनकी असम्मति और असंतोषका बोझ अच्छे और बुरे, दोनों पदार्थों में, एकसा भाव उठाना व्यर्थ ही जरूरी न बना लो।" रखना, कुछ बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती । उपादेय कुमार, किंतु, विरोधमें कुछ कहना चाहते हैं कि वस्तुमें ममत्व भाव रखना ही श्रेयस्कर हो सकता मुनिने बोध दिया, है, कुत्सितमें केवल निर्ममत्व भाव ही नहीं प्रत्युत "कुमार, समझ लो, अपने कुटुम्बियोको समझाने अवहेलाका भावरखना आवश्यकीय है । रत्नादिक का एक अवसर अवश्य देना चाहिये । मेरा यही मा- वस्तुएँ, अपने गुणों के कारण, हमारे ममत्व की देशा है। इसमें ननु नच न करो।" अधिकारिणी होनी चाहिये।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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