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________________ ६३२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ विशेष नोट बा. कामताप्रसादजी के इस लेखकी विचारसरणी निर्णय देने अथवा उन्हें निर्णीत रूपस घोषित करने भी प्रायः वैसीहोस्खलित है जैसी कि पहले उत्तर- का लेखमें साहस किया गया है !! समुचित विचारकी लेखकी थी, साथही कुछ क्षोभको भी लिये हुए मालम यह कोई पद्धति नहीं है-भले ही कुछ बालक इससे होती है और उसका ध्येय अधिकतर उत्तरका भुगतान सन्तुष्ट हो जायँ परन्तु विचारकों को वह जरा भी मात्र जान पड़ता है-शान्तचित्त अथवा खुले दिलसे सन्तोष नहीं दे सकती । उनकी दृष्टि में वह एक भ्रामक किसी विषयका निर्णय या वस्तुतत्वका कोई गहरा वि- तथा घातक रीति है। चारनहीं। और इसका कितना ही प्रभास पाठकोंको इसके सिवाय, लेखक महाशय अपनी मतलब पिछले कुछ सम्पादकीय फुटनोटोंसे भी मिल सकेगा। सिद्धि के लिये-अथवा भोले पाठकों पर यह छाप इस लेख में भी कितनी ही विवादस्थ अनिर्णीत बातों अ- डालने के लिये कि हमने उत्तरका ठीक भुगतान कर थवा दूसरे विद्वानोंके कथनोंको, जिन्हें अपने अनुकूल दिया है-दूसरे की बातों को गलत रूपमें प्रस्तुत समझा, योंही-बिना उनकी खुली जाँच किये-एक करते हुए भी मालूम होते हैं, जिसका एक उदाहरण अटल सत्यके तौर पर मान लियागया अथवा प्रमाणमें मुख्तार सा०(सम्पादक) के कथन (यक्तिवाद) को पेश किया गया है और जिन्हें प्रतिकूल समझा उन्हें 'मात्र' शब्दके द्वारा सीमित करके रखना है और या तो पूर्णतया छोड़ दिया गया और या उनके उतने दूसरा उदाहरण जायसवालजीके लेखका "उनके अंशसे ही अपेक्षा धारण की गई है जो अपने विरुद्ध लखानमार" इन शब्दों द्वारा मुख्तार सा० का लेख पड़ता था, जिसका एक उदहारण जायसवालजी का प्रकट करना है ! क्या 'अनेकान्त' में प्रकट होने मात्रनिर्वाणसमयादिसम्बन्धी पुराना कथन है, जिस पर से ही कोई लेख उसके सम्पादकका लेख हो जाता है ? पीके नोट भी दिया गया है, अथवा मुनि जिनविजय अथवा जिन बातों पर सम्पादकको कोई नोट देनेका जीका सूचनामात्र कथन है, जिसके विषयको यों ही अवसर न मिल सका हो या यथेष्ट साधन-सामग्रीके निर्धान्त सत्यके तौर पर स्वीकार कर लिया गया है सामने मौजद न होने पर नोट देना उचित न समझा और उसके आधार पर एक ऐसी थेरावलीको "वर्ण- गया हो, वे सब बातें सम्पादकद्वारा मान्य कही जा तः जाली" करार देनेकी हिम्मत की गई है, जिसके सकती हैं ? कदापि नहीं। अतः दूसरोंकी बातोंकोइस अभी तक लेखक महाशयको दर्शन भी नही हुए और प्रकार रालत रूपमें प्रस्तुत करनेकी इस वृत्तिसे लेखकके जिसका विषय अभी बहुत कुछ विवादापन्न है !! इस दूसरे उल्लेख-खास करके वे उल्लेख जिनमें दूसरे प्रकार जो बातें खुद भसिद्ध, संदिग्ध तथा विवादापन्न विद्वानोंके वाक्योंको उद्धृत न करके महज़ फुटनोटों हैं अथवा प्रतिवादीको मान्य नहीं हैं उनके भाधार पर द्वारा पुस्तकके नामादिका हवाला दे दिया गया है और अपने युक्तिवाद को खड़ा करके भनेक विषयोंका जिस परसे उन विद्वानों के निर्धार भादिकी कोई स्थिति
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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