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________________ ५३३ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र नहलाते थे, सूखा घास खिलाते थे, छना पानी पिलाते इसी शुभ प्रसंग पर पूर्ण होते हैं-बिछुड़े हुए मिलते थे, दुहने वालेके नाखूनोंको पत्थर पर रगड़वाकर लाल हैं और विधवायें अपने पुराने पापोंसे मुक्त होती लाल करा डालते थे, और न जाने क्या क्या अलौ- हैं। कुछ वर्ष पहले एक श्रीमती सेठानीने, जो कि विकिक शुद्धतायें कराते थे । उनकी भक्ति भी निःसीम धवा थीं, यहाँ के एक कुएको अपना तत्कालका पैदा होती थी; पर सुनते हैं, वे पढ़े लिखे कुछ भी न थे। हुआ बच्चा समर्पण करके असीम पुण्यसम्पादन किया इस समयके बहुतसे मुनि महागज भी इसके था। उनके हृदयमें जो यह चाबी भरी हुई है कि एक अनयायी और प्रचारक हैं। शूद्रके हाथके जलका त्याग बार तीर्थके दर्शन करनेसे नरक और पशुगति नहीं कराना तो उनका सबसे मुख्य काम है। होती है, वह उन्हें बगबर तीर्थयात्रा करा रही है; परंतु __ जैनसमाजके पुण्य कार्यों में भी इसी प्रकारकी रस जड़ चाबीमें यह शक्ति नहीं कि उन्हें उक्त बड़े बड़े विषमता देखी जाती है। सम्मेदशिखर, गिरनारजी आदि पापोंके करनेमे रोके, अथवा यह समझा देवे कि यदि तीर्थों की वन्दना करने में पुण्य बतलाया है । प्रति वर्ष तुम अपने भावोंको और चरित्रको उज्ज्वल नहीं रख हजारों जैनी लाखों रुपया खर्च करके तीर्थयात्रा कर सकते हो, तो घर ही बैठे रहो -इतना खर्च और मेहहैं; परन्तु इनमें ऐसे लोग सौ-पचास भी कठिनाईम नत उठाने की क्या आवश्यकता है? मिलेंगे जो यह जानते होंगे कि तीर्थों के दर्शन करने में हमारे बहुतसे पाठकोंन वे मशीनें देखी होंगी, जो पुण्य क्यों होता है और निवासस्थानके जिनमंदिगेंमें कितने ही बड़े बड़े स्टेशनों पर रक्खी गई हैं और दर्शन करनेकी अपेक्षा इसमें क्या विशेषता है । अधि- जिनमें एकनी डालते ही प्लेटफार्म टिकट बाहर निकल काँश लोग उन्हीं भेड़ांका अनकरण करनेवाले मिलेंगे, आना है । एकनी डालने वाला कोई हो, कैसा ही हो जो एक भेड़को पड़ती देख कर सबकी सब कुए में गिर और उमका कुछ भी मतलब हो-इन बातोंकी मशीपड़ती हैं । बम्बईमें गिरनारजी के यात्री अकसर आया नको परवाह नहीं। यहाँ अन्नी डाली कि वहाँ टिकट करते हैं । उनमें यदि कुछ परिचित लोग मिल जाते है, तैयार है । जैनियोंमें जो दान होता है और जिसके कातो कभी कभी मुझे उन्हें रेल आदिमें बिठानके लिए रण लोग उन्हें सबसे अधिक दानशील कहते हैं, वह जाना पड़ता है । में बरावर देखता हूँ कि रेलवे कंपनी- भी इमी ढंगम होता है । दृष्टान्तको ठीक ठीक घटानेकी चोरी करनेमें तो उन्हें कुछ पाप ही नहीं मालूम के लिए आप टिकट दनको दान करना समझ लीजिहोता । आधे टिकट के बच्चों को छुपा कर मुफ्तमें ले ये और एकन्नीको वह 'मान' समझ लीजिए, जो उस जाना, नियमसे अधिक वजनको वैसे ही या रिशवत दानके बदले में लोग उन्हें देते हैं। मशीनों में इतनी विदकर साथ ले जाना, थोड़ी दूरका टिकट लेकर लम्बा शेपता है कि ए कन्नी पाये बिना वे टिकट नहीं निकासफर करना और उतरनेके स्टेशनसे पहले फिर टिकट लतीं, पर हमारे दानी भाई आगेकी उम्मेद पर भी दान ले लेना, इत्यादि कामोंमें तो वे खूब अभ्यस्त होते हैं। करते हैं और इसमें कभी कभी बेचारोंको पछताना भी इन यात्रियोंके दूसरे दुराचारोंके विषयमें तो कुछ न पड़ता है। हमारी समझमें उन्हें इस गलतीको सुधार कहना ही अच्छा है। उनके वर्षों के मनोरथ और वादे लेना चाहिए और पहले मानकी पुष्टि करके पीछे दान
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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