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________________ ५३२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० ही नहीं । लोग कौड़ी. कौड़ीके लिए मरने-मारनेको भीतर जानेकी आज्ञा नहीं मिल सकती । घीमें कुछ तैयार रहते हैं और सारी दुनियाकी दौलत हमारे ही ऐमी विलक्षण शक्ति है कि उसमें अवगाहन हो जानघरमें आ जाय, इसी भावनामें दत्तचित्त रहते हैं । इसी से प्रत्येक भोज्य वस्तुको दूर दूर तक सफर करनेकी तरह माया, छल, कपट, ईर्षा, द्वेष, चापलूसी, म्वार्थप- म्वाधीनता मिल जाती है। पंजाबी और दिल्ली आगररता आदि दोषोंके आप इन्हें भण्डार पायेंगें । इन्होंने की तरफ़के लाला लोग तो उसे जते पहने हुए भी ग्वा जो छोटे छोटे पापोंका त्याग कर रक्खा है, सो इस- सकते हैं। पक्की रसोईको दूसरी जातियोंके साथ बैठ लिए नहीं कि इन्हें पापोंसे घृणा है। नहीं, एकतो इन- कर और बाजारसे खरीद कर खानेका भी कहीं कहीं की बाड़में बड़े बड़े पाप ढके रहते हैं और दूसरे उक्त रिवाज है; परन्तु कच्ची रसोईका इस तरह दुर्व्यवहार चीजोंके छोड़नका इनके यहाँ परम्पगसे रिवाज चला करनेम धर्म एक घड़ी भर भी खड़ा नहीं रह सकता। पा रहा है । अर्थात् पहलेकी भरी हुई चाबी अपना इस धर्मके तत्व बहुत ही गढ़ हैं । उनका समझना काम कर रही है, इसके सिवा इसका और कोई का- बहुत ही कठिन है । इस विषयमें एक जदा लेख ही रण नहीं। लिखा जा सकता है । यहाँ इतना ही कह देना काफी ___ हमारे जैनी भाई 'चुल्लिकाधर्म' ( चल्हा-धर्म ) के है कि इम धर्ममें जो जितनी बारीकी रखता है जो भी बड़े उपासक हैं और इस भी वे अपने उच्चाचरण- जितना मग्न रहता है, वह उतना ही बड़ा धर्मात्मा का सार्टिफिकंट समझते हैं । मैं यह तो नहीं कह समझा जाता है। उसके धर्मको देखकर ही उसके उच्चसकता कि इस धर्मसं उनकी आत्मायें कितनी उन्नत नीचाचरणकी जाँच करली जाती है-दूसरे चरित्रोंको हुई हैं; परन्तु यह अवश्य कहूँगा कि यह उनकी गिरी दवनकी जरूरत नहीं । दिनमें दो चार बार नहाना, हुई आत्माओं को ढके रहने के लिए उनका अंतःस्वरूप हाथ पैर धोनमें दो चार सेर मिट्टी खर्च करना, अपने बाहर प्रकट न हो जाय, इसकी सावधानी रखनके हाथस पानी भग्ना, बर्तन मलना, रमाई बनाना, गेहूँलिए-बड़ा काम देताहै और इससे वकचर्या या बगला- का धलवाकर फिर उसका आटा काममें लाना, जलानेवृत्तिकी बहुत ही वृद्धि हुई है । यह 'चुल्लिका-धम' जुदा की लकड़ियों तकको धुलवाना, गीली धोती पहिनना, जुदा देशों और जदा जुदा जातियोंमें जदा-जुदा प्रकार- बायें हाथको चौकेमे बाहर रखना, मिट्टीके बर्तनोको का है और उसी पुरानी मशोनस चल रहा है। चौका रसाईके काम में नहीं लाना, बिना न्हाये या गीला क. इसका मुख्य निवासस्थान है । इसकी रक्षा करनेके पड़ा पहिने पानी के घड़े न छुना, कुँवारी कन्याके हाथलिए चौके के चारों ओर एक कोट किग रहता है। का भोजन नहीं करना, किसीके स्पर्शसे बचे रहना, काट भले ही चाकमिट्टी या कोयलेकी लकीरमात्र ही आदि सब बातें इसी धर्मके अंतर्गत हैं । श्रावकोंके हो, तो भी उसके भीतर पैर रखनका हर एकको सा- सिवा त्यागियोंमें भी इसके बड़े बड़े उपासक हैं। एक हस नहीं हो सकता । पक्की रसोईमें यद्यपि इसका द्वार दो त्यागियोंने तो इसमें बड़ा नाम कमाया था । एक अबाधित रहता है; परन्तु कच्ची रसोई में तो यह बहुत त्यागी अपने हाथसे चक्की पीसते थे । एक बाबाजी ही दुर्गम हो जाता है । सर्वाग पवित्र हुए विना उसके जिस भैसका दूध दही खाते थे, उसे प्रासुक जलसे
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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