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भनेकान्त
[ वर्षे १, किरण शिष्यस्तस्य महीयसो
रचना की है। आपके अणुव्रत-गुरु वालचन्द्र मुनि, मितगतिर्मार्गप्रयालंबिनी
महावत (जिनदीक्षा)-गुरु अमयचंद्र सैद्धान्तिक और मेनां कम्मषमोषिणी
शाखगुरु अभयसरि तथा प्रभाचंद्र मुनि थे। अभी
तक आपके बनाये हुए 'भावत्रिभंगी' (भावसंगृह) और भगवतीमारापना श्रेयते ।...१८ ।। 'प्रास्रवत्रिभंगी' नामके दो ग्रन्थोंका ही पता चला था, भाराधनषा यदकारि पूर्णा
जो माणिकचंद गन्थमाला के 'भावसंगहादि' नामक मासपतुर्भिर्न तदस्ति चित्रं ।
ग्रन्थ नं०२० में मुद्रित हो चुके हैं हैं । इन ग्रन्थोंमें गन्ध महोयमानां जिनभोक्तिकाना
की रचना का कोई समय न होने से आपका समय
दूसरे विद्वानोंके समय पर से ही अनुमान किया जाता मिद्यन्ति कृस्यानि न कानि सयः।।१६। था। परंतु गत वर्ष बम्बई के उक्त सरस्वती भवनको स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं
देखते हुए मुझे आपका एक और गून्थ उपलब्ध हुआ मया जने यास्यति गौरवं परं । है, जिसका नाम है 'परमागमसार' । इस ग्रन्थ मे प्रकाशितं किं न विशुदबुदिना
रचनाका स्पष्ट समय देते हुए लिखा है:
इदि परमागमसारं महातां गच्छति दुग्धतो घृतं ।। २० ॥
सुयमुणिणा कहियमप्पवोहेण । इस प्रन्थको पुरादेखनेका मुझे अभी तक अवसर नहीं मिला । विद्वानोंको चाहिये कि वे उक्त प्राचीन
सुर्दाणउणा मुनिवसहा भगवती पाराधनाके साथ इसका तुलनात्मक अध्ययन
दोसचुदा सोहयंतु फुढे ॥ २२३ ॥ करें और इस बातको मालूम करके प्रकाशित करें कि सगगाले हु सहस्से इस प्रन्थमें मूलाराधना की किन किन बातों को छोड़ा विसयतिसही १२६३ गदे दु विसवरिसे । गया और किन किन बातोंमें विभिन्न मतका प्रतिपादन
मग्गसिरसुद्धसत्तमि किया गया है। अथवा दोनों ग्रंथों में किस किस बात की परस्पर विशेषता है। क्या इस प्रन्यमें पहले अन्य
गुरुवारे गंप संपुरणो ।। २२४ ।। का इस पल की लोकरुचिके अनुसार महज सार ही
अर्थात्-अल्पज्ञानके धारक मुझ भुतमुनि ने इस खींचा गया है अथवा इसके रचे जानेका और ही. 'परमागमसार' की रचना की है, जो शाख-निपण सरा कोई हेतु है?
और दोषरहित मुनिवृषभ हैं वे इसका भने प्रकार माही के मंडारमें इस गन्य की परी प्रतितो शोधन करें। यह गून्य शक संवत् १२६३ 'वृष' संववहाँ के कोई भी सजन माई यदि इस गाय के पहले सरमें मंगसिर मुदि सप्तमी गुरुवारके दिन लिख कर पत्र की नकल मेरे पास भेजेंगे तो मैं उनका मामारी पूर्ण हुभा है। हूँगा । और तुलनात्मक लेख भेजने वाले विद्वान् तो इससे भुतमुनि का सुनिक्षित अस्तित्वसमय वि० विरोष धन्यवादके पात्र होंगे।
संवत् १३९८ तक पाया जाता है। इसके बाद मालूम नहीं किये और कितने समय तक जीवित रहे हैं और
पन्होंने और कौन कौन से गुम्यों की रचना की है। श्रुतमुनि का निश्चित समय
भवणवल्गोल के मंगराज लिखित शिलालेख नं० १०८ दक्षिण में 'तमुनि' नामके एक जैन विद्वान हो (२५८) में जिन भुतमुनि की निण्या की प्रतिष्ठा का गये, जिनोंने प्राकृत भाषामें अब जैन-गन्यों की समय शक संवत् १३५५ दियाईवे इन भूतमुनिसे मिल