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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] उद्बोधन ३६७ इसी तरह अगर जैन धर्मकी किरणें शूद्रोंके हदयोंमें चाहियें ? हमारी लम्बी नाक है तो शद्रकी कटी क्यों पहुँच जायेंगी तो वह कहीं शूद्र न हो जायगा और न होनी चाहिये १ अगर सब अंगोपांग एकसे रहेंगे तो न हमारे लिये बेकामका अथवा अनुपयोगी ही फिर फर्क हो क्या रहेगा ?' नतीजा यह कि हमारे भीबन जायगा । शूद्रोंके द्वारा भगवानकी पूजा होने पर, तर ईर्ष्या और द्वेषकी ऐसी कुछ भग्नि भरी हुई है कि यही सब बात भगवान विषयमें भी समझ लेनी दूसरोंकी भलाई की बात सुनते ही हमारे हार जल चाहिये। उठते हैं। हमें अपने आत्मोद्धार की कुछ चिन्ता नहीं खेद है कि हम धर्म के नाम पर धर्मात्मा तो नहीं, है, चिन्ता है दूसरोंको गिराने की या उनको पनित कषायी बन रहे हैं। हमारे ऊपर अहकारका भूत सवार बनाये रखनेकी! बाहरी "मरवेष मैत्री"" है। वह कहलाता है “जो धर्म मैं मानें उसे शूद्र क्यों शर्मकी बात है कि हम जैनधर्म के नाम पर ऐसे माने ? जिसे मैं पूनँ उसे शूद्र क्यों पूजे ? शूद्र तो कषायी-पनका पोषण कर रहे हैं! अगर हमें जैनत्वका, मुझसे नीचा है इसलिये शूद्रोंका भगवान और उनका 'सत्वेषु मैत्री'का थोड़ा भी ध्यान है तो हमें यह मिथ्या धर्म भी नीचा होना चाहिये । नहीं तो उनमें हममें अहंकारका भूत उतारकर अलग कर देना चाहिये और फर्क ही क्या रहेगा"१ मतलब यह कि अब और कुछ प्राचीन काल के समान जैनधर्मको विश्वधर्म बनानेकी फर्क तो रहा नहीं है, जिन सद्गणोंके कारण हम उप सब पोरसे चेष्टा करनी चाहिये । महनार माहबने थे उनको तो हम कभीका दफना पके हैं, इसलिये अब इस निबन्ध जो जबर्दस्त प्रमाण दिये। जबर्दस्तीसे फर्क बनायेंगे। अगर कोई विधाता होता अवश्य ही हम भहंकार-म्पी भनकं उमारनेमें और उस पर हमारा वश चलता तो उमसे हम यही कहते अमोघ मिद्ध होंगे । हाँ, जो लोग भूनादेशका स्वांग कि 'जब हमारे दो आँखें हैं तो शुद्रके दो क्यों होनी करते रहना चाहते हों उनकी बात दूसरी है। उद्बोधन [ लेखक-पी०कल्याणकमार जैन 'शशि'] द्वेष दम्भ तुझ पर मुँह बाते हैं बाने दे भात-भमिहिन शीश चढ़ाने में जो कभी न समा मग तीक्ष्ण त्रिशूल अनेकों पाते हैं आने दे ! शान्ति सहित अत्याचारोंका दुर्ग नाश जो करता ' विध्न सघन धन उमड़ उमड़कर छाते हैं छाने दे! देकर भी प्रियप्राण दूमरों के दुख-मङ्कट हरना ' होता है अपमान! प्राण यदि जाते हैं जाने थे ! क्या सच ही होता विश्वास तुझे वह मरकर मरता? हर्ष-सहित बलिदान हो मनमें निश्चित मीन र' प्रियवर मर सकना न वह मृत्यु न सका श्रायगी जीना है मरमा न यों होगा मर कर भी अमर । मस्य से अमरत्व की बिजय-माल पानायगी।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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